प्रहरी संवाददाता/कसमार (बोकारो)। विहंगम योगी संत समाज के संस्थापक सद्गुरु सदाफलदेव आश्रम बोकारो इस्पात नगर के जनवृत 5 के परिसर में प्रथम परम्परा सद्गुरु आचार्य धर्मचन्द्र देव की 103वीं जन्म जयंती मनायी गई।
इस अवसर पर स्वर्वेद महामंदिर धाम वाराणसी से विश्व शांति वैदिक हवन यज्ञ का ऑनलाइन प्रसारण माध्यम से आश्रम परिसर में वैदिक हवन सम्पन्न हुआ।
वैदिक हवन कार्यक्रम के मुख्य अतिथियों में केबी द्विवेदी, यमुना पांडेय, सरयू प्रसाद, आर एस पी गुप्ता, विनोद मिश्रा, सत्य नारायण गोयल आदि उपस्थित थे।
कार्यक्रम में विशेष सहयोगी के तौर पर डी पी ठाकुर, राजकिशोर सिंह, उमेश नंदन सिंह, यदुनंदन सिंह, जी के सिन्हा, राहुल, उमेश रजवार, जनार्दन पुजारी, सत्येंद्र, गोविंद मेहता, आदित्य महथा, सी पी सिंह, जनार्दन प्रसाद, अरुण, विद्यार्थी मनोज, भरत किशोर महतो, संजीत, राजेश, चंद्र किशोर पाठक, जगत, शंकर रजक, संजय केशरी व महिला संत समाज के सदस्यों ने अहम योगदान दिया।
बताते चलें कि अध्यात्म भूमि भारत के गौरवशाली गौतम गोत्र और सेंगर वंश के योगी कुल में पूज्यपाद पिता अनन्त महर्षि सदाफल देव जी महाराज और पूज्यनीय माता विमला देवी के यहाँ फाल्गुन कृष्ण त्रयोदशी, आदि।
महाशिवरात्रि विक्रम संवत 1975 तदनुसार 28 फरवरी 1919 को प्रथम परम्परा सद्गुरु आचार्य धर्मचन्द्र देव जी महाराज का आविर्भाव उत्तरप्रदेश के बलिया जिला के हद में पकड़ी ग्राम में हुआ था। उस दिन स्वामीजी ने अपनी डायरी में लिखा था कि आज एक योगी प्रकट हुआ। स्वामीजी की इस उक्ति में ही प्रथमाचार्य जी के अवतरण की पृष्ठभूमि छिपी हुई है।
ब्रह्मविद्या विहंगम योग के आध्यात्मिक सूर्य महर्षि सदाफलदेव जी महाराज हैं। उन्हीं के ज्ञान प्रभा से प्रभावित उनके प्रथम उत्तराधिकारी एवं प्रथम परम्परा सद्गुरु आचार्य श्री धर्मचन्द्र देव जी महाराज अध्यात्म के आकाश के प्रभा मंडित धवल चन्द्र हैं। स्वामीजी की छत्रछाया में ही प्रथमाचार्य जी के आध्यात्मिक जीवन का विकास हुआ।
अभी प्रथमाचार्य जी की अवस्था करीब 19 वर्ष की ही थी कि हरिद्वार के महाकुम्भ के अवसर पर चैत्रशुक्ल चतुर्दशी वि०सं०1995 (ई०सं०1938) सप्तश्रोत गंगा के पावन तट पर बैठाकर स्वामीजी ने उन्हें उत्तराधिकार का अभिषेक तिलक लगाकर अपने आशीर्वाद से अभिसक्त किया। प्रथमाचार्य जी स्थित प्रज्ञ की भाँति सब कुछ द्रष्टाभाव से ही देखते थे और स्वामीजी के आदेश पालन में ही उनकी चेतना लगी रहती थी।
आध्यात्मिक जगत में स्वर्वेद जैसा महान सद्ग्रन्थ आज कहीं नहीं विद्यमान है। अध्यात्म के बाह्य तत्त्वज्ञान तथा आभ्यान्तर भेद साधन इन दोनों का पूर्ण समावेश इस सद्ग्रन्थ में किया गया है। स्वर्वेद को स्वामीजी अपने हृदय की चिंतामणी कहते थे।
इस सद्ग्रन्थ के भाष्य के बारे में प्रथमाचार्य जी को सम्बोधित करते हुए स्वामीजी ने कहा था कि आप स्वर्वेद का भाष्य अपने जीवनकाल में ही कर दीजिएगा, नहीं तो इसकी भी वही दशा होगी जो आज अन्य आध्यात्मिक ग्रन्थों का कर दिया गया है।
आध्यात्मिक ग्रन्थ स्वर्वेद का ज्ञान आज विश्व में दो ही व्यक्तियों को है। इसके सही तत्त्वज्ञान को सम्पूर्ण रूप में या तो मैं जानता हूँ या आप। तीसरा कोई नहीं है जो स्वर्वेद में वर्णित सभी विषयों का पूर्ण ज्ञान रखता हो। इसलिए आपको कह रहा हूँ कि इसका भाष्य अपने हाथों से कर देंगे, नहीं तो आगे चलकर इसका सिद्धान्त सही रूप से स्थिर नहीं रह सकेगा।
स्वामीजी के इस आज्ञा को शिरोधार्य करके प्रथमाचार्य जी स्वर्वेद का जो अनुपम भाष्य किया है, वह विहंगम योग सन्त समाज की एक अमूल्य निधि है। यह भाष्य प्रथमाचार्य जी के अप्रतिम ज्ञान का दिव्य दर्पण है।
अपने देहत्याग के पूर्व स्वामीजी ने प्रथमाचार्य जी को ब्रह्मविद्या के सारे भेदिक रहस्यों का ज्ञान कराते हुए कहा था कि मैंने इस धन को बहुत परिश्रम और तपस्या से प्राप्त किया था। अब आप इसकी रक्षा करेंगे और समझ बूझकर उपदेश करेंगे। इतना ही नहीं बल्कि आपको अपना आशीर्वाद देते हुए स्वामीजी ने यह भी कहा था कि आप महान हैं। तेजस्वी हैं। आपकी कीर्ति सारे देश में फैलेगी। आप पूर्ण हैं। आप सद्गुरु हैं।
प्रथमाचार्य जी ने अपने जीवनकाल में स्वर्वेद भाष्य के अतिरिक्त अन्य पुस्तकों की भी रचना की, जिसमें दिव्य जीवन कथा, ब्रह्मविद्या और मत सम्प्रदाय, सद्गुरु दिव्य चरितावली, कबीर और ब्रह्मविद्या, सद्गुरुदेव कौन थे, प्रश्नोत्तरी, अमृतवाणी, बोधमृत, ज्ञानामृत और कोनोपनिषद भाष्य आदि प्रमुख हैं।
इन पुस्तकों के स्वाध्याय करने पर प्रथमाचार्य जी के अपार और अथाह ज्ञान सागर का पता चलता है, जिसे देखकर बुद्धि भी विस्मित हो जाती है। प्रथमाचार्य जी सम्पूर्ण वैदिक वाङ्गमय के साथ-साथ समस्त दर्शनशास्त्र और सन्तमत के महान विद्वान थे।
जिस विषय पर आपकी लेखनी चलने लगती थी, वह विषय भी धन्य हो जाता था। अध्यात्म का सांगोपांग विवेचन उनकी स्वतः स्फूर्त लेखनी से निस्सरित हो पाठकों के अन्तःकरण पर अपनी अमिट छाप छोड़ जाता था।
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