संकट में है भारत और नेपाल की संयुक्त सांस्कृतिक विरासत सुप्रसिद्ध नेपाली मंदिर

सुरक्षित घोषित पर सर्वाधिक असुरक्षित, नष्ट हो रही काष्ठ कलाकृतियां

अवध किशोर शर्मा/सोनपुर (सारण)। पुरातत्व निदेशालय की घोर उपेक्षा का वर्षों से दंश झेल रहा भारत और नेपाल की संयुक्त सांस्कृतिक एवं धार्मिक विरासत वैशाली जिला मुख्यालय हाजीपुर नगर के कौनहारा घाट स्थित “नेपाली छावनी शिव मंदिर’ के अस्तित्व पर संकट उत्पन्न हो गया है।

उत्तर बिहार का यह सुप्रसिद्ध पर्यटन स्थल है। नेपाली तीर्थ यात्रियों की पहली पसंद है। स्थापत्य एवं काष्ठ कला का अदभुत नमूना है। इसे बिहार का मिनी खजुराहो एवं मिनी पशुपतिनाथ मंदिर के नाम से भी लोक ख्याति प्राप्त है। पुरातत्व निदेशालय बिहार सरकार ने इसे “बिहार प्राचीन स्मारक और पुरातत्व स्थल, अवशेष तथा कलानिधि अधिनियम-1976” के तहत सुरक्षित घोषित कर रखा है।

आप देख सकते हैं कि सरकार द्वारा सुरक्षित घोषित इस पुरातात्विक धरोहर का वर्तमान में क्या हश्र है।मंदिर की बाहरी दीवारों व दरवाजे की ईंटें खिसक रही हैं। इसको बचाने की दिशा में पुरातत्त्व विभाग द्वारा कोई कारगर कदम आज तक नही उठाया गया है। जिसके कारण कलाकृतियों से सज्जित काष्ठ के बने दरवाजों की हालत बेहद खराब है।

जानकारी के अनुसार यह मंदिर नेपाली वास्तुकला ‘पैगोडा शैली’ की है। मंदिर दो मंजिला है। इस मंदिर के निचले तल में दोहरी दीवारों से घिरा गर्भगृह है, जिसमें शिव लिंग है।गर्भगृह के चारो ओर बरामदा है, जिसका उपयोग प्रदक्षिणा पथ के रुप में होता था। गर्भ गृह में प्रवेश के लिए काष्ठ निर्मित द्वार है, जिन पर काफी सावधानी से कलाकृतियों को तराशा गया है।

ये कलाकृतियां श्री गणेश एवं देवी लक्ष्मी की आकृतियों के साथ-साथ प्राकृतिक वस्तुओं जैसे पुष्प, पेड़ आदि से सम्बंधित है। वास्तव में गर्भगृह में प्रवेश हेतु कुल आठ दरवाजे थे। इन सभी पर सूक्ष्म छिद्रनुमा कलाकृतियां भी बनायी गई थी जो एक ओर तो गर्भगृह के सौंदर्य को बढ़ाती थी।

वहीं दूसरी ओर रोशनदान का भी काम करती थी।सुरक्षा की दृष्टि से गर्भगृह के चारों ओर ऊंची चहारदिवारी भी बनायी गई है। मंदिर का मुख्य द्वार पूर्व दिशा में है। इनमें दक्षिण तरफ के एक द्वार के पास से अनेक ईंटें गायब हैं और दरवाजे के काष्ठ कलाकृतियों का ध्वंस होता देख पर्यटकों के मन में भी एकबारगी दर्द सा उठता नजर आता है।

कला संस्कृति एवं पुरातात्विक धरोहरों की सुरक्षा के प्रति संकल्पित विभागों की निष्ठुरता का ही परिणाम है कि नेपाली छावनी शिव मंदिर की सुरक्षा-संरक्षा पर खतरा अपने आखिरी स्थान पर पहुंच गया है।मंदिर के चारो तरफ बनी छावनी की छत जर्जर एवं क्षतिग्रस्त होने के कारण पर्यटकों को ऊपर चढ़ने की पाबंदी लगा दी गई है।

सीढ़ी पर ईंटों का ढ़ेर लगाकर रास्ता जाम किया गया है। पुरातत्व विभाग ने मंदिर परिसर की रंगाई-पुताई भी नही करायी है। जिससे मंदिर का आकर्षण समाप्त हो रहा है। मंदिर की चहारदीवारी और उपजे जंगल को देखकर सहज ही अंदाज लगाया जा सकता है कि विभाग नेपाली छावनी मंदिर की सुरक्षा-संरक्षा एवं साफ-सफाई के लिए कितना कृत संकल्पित है?

पहले पर्यटक मंदिर की छावनी की छत से नारायणी नदी की शोभा का दीदार करते थे। यह कहने में कोई अतिशयोक्ति नही की कला संस्कृति, युवा विभाग एवं पुरातत्व निदेशालय, बिहार पटना पूरी तरह इस ऐतिहासिक-पुरातात्विक एवं धार्मिक-सांस्कृतिक धरोहर की हिफाजत करने में विफल साबित हुई है।

इसमें कोई शक नही कि मंदिर का निर्माण काफी अच्छी तरह से पके ईंटों से किया गया है। जिसका बाहरी हिस्सा काफी चिकना है और ईंटों की जुड़ाई के लिए विशेष प्रकार से बने मसाले, जिसमें छोवा, बबूल का दूध, मिट्टी के साथ मिलाया जाता था का प्रयोग किया गया है।

ऊपरी तल में भी चारो ओर एक-एक द्वार है जो लकड़ी से ही बना है। दोनों तलों के शीर्ष भाग में लगे तिरछे छज्जे हैं। जिनकी चौड़ाई क्रमशः 5.6 फीट और 7.5 फीट है। निचले तल का छज्जा 16 और ऊपरी तल का छज्जा 12 काष्ठ स्तंभों पर अवलम्बित है। इनमें से प्रत्येक स्तंभ पर देवी-देवताओं की मूर्तियां उत्कीर्ण हैं।

मंदिर के सबसे ऊपरी भाग में धातु निर्मित कमल पुष्प उलट कर रखा गया है। जिस पर एक त्रिशूल टिका है। जो भगवान शिव का प्रतीक है।यह नेपाली मंदिर भटगांव के पांच पैगोडा मंदिर के ही समरुप है। नेपाली मंदिर के छज्जों के नीचे लगी शहतीरों पर देवी-देवताओं की मूर्तियों के साथ-साथ मिथुन मूर्तियों को भी प्रदर्शित किया गया है।

इन मिथुन मूर्तियों को उत्कीर्ण करने की शैली मध्य भारत में स्थित खजुराहो और उड़ीसा के कोणार्क मंदिर के मूर्ति शिल्प के समकक्ष है। इन मिथुन आकृतियों में कामसूत्र में वर्णित आसनों में से कुछ आसान अत्यंत ही सहज भाव से कबेर शाल के शहतीरों पर अंकित किये गये हैं। इनमें से एक विशेष उल्लेखनीय दृश्यांकन एक संभोगरत नारी का अपने शिशु को स्तनपान कराने का प्रसंग है, जो कलात्मक एवं भावनात्मक दृष्टिकोण से विलक्षण एवं अप्रतिम है।

इस मंदिर में उत्कीर्ण देवी-देवताओं की मूर्तियों में ब्रह्मा, विष्णु, शिव, महावीर, पशुपति, मारुती, लक्ष्मी आदि देवतागण अपने वाहनों पर विराजमान हैं। काष्ठ स्तंभों पर पशु-पक्षियों की आकृतियां भी देखी जा सकती है जो अपने आप में विशिष्ट है। इनमें से कुछ पशुओं की आकृतियों में काफी विचित्रता है, क्योंकि उनका शरीर तो पशु का है पर मुख पक्षी का है।

इसी प्रकार कुछ पक्षियों के शरीर पर पशुओं के मस्तक हैं। इन सभी कलाकृतियों की सुरक्षा खतरे में है, क्योंकि इसकी सुरक्षा-संरक्षा के लिए किया जा रहा मंदिर परिसर में कोई चिह्न दिखाई नही पड़ रहा।
कहते हैं कि मंदिर के गर्भगृह में बहुत पहले अष्टधातु एवं काष्ठ निर्मित देवी-देवताओं की मूर्तियां स्थापित थीं, जो नेपाल के पशुपतिनाथ मंदिर की अनुकृति थी।

पर उसे वर्ष 2008 में चोरों ने चुरा लिया। यानी अब उनका अस्तित्व नही है। वर्ष 2009 में आचार्य शिवाकर शुक्ला द्वारा स्थापित शिवलिंग ही मंदिर में है जिसकी पूजा होती है। भक्त जन आकर जलाभिषेक करते देखे जाते हैं और पुष्प भी अर्पित करते हैं।

नेपाली सेना के कमांडर मातवर सिंह ने इस छावनी एवं छावनी के भीतर भगवान पशुपति के प्रतीक स्वरुप मंदिर का निर्माण कराया था।यह भी माना जाता है कि नेपाल के शाही राजघराने के लोग कार्तिक पूर्णिमा स्नान एवं विभिन्न पावन अवसरों पर कौनहारा घाट पूजा-अर्चना के लिए आते थे।

हिन्दू राजा होने की वजह से जिस स्थल पर उनका खेमा गड़ता था उसी स्थल पर शिव मंदिर का निर्माण और मंदिर की सुरक्षा की दृष्टि से चारो तरफ चारदीवारी व छावनी का निर्माण कराया। इसी छावनी में पहले नेपाली तीर्थयात्री आकर ठहरते और स्नान के बाद वापस लौटते थे। उनकी आस्था भगवान पशुपति के प्रति थी।

इसलिए उनकी प्रतिकृति की स्थापना की गई थी। इस मंदिर को केमिकल ट्रीटमेंट की सख्त जरुरत है। बिहार सरकार फेल है तो केंद्र को इसकी हिफाजत के पहल करने की जरुरत है। क्योंकि यह पुरातात्विक धरोहर निश्चित रुप से भगवान भरोसे ही अभी है।

इसकी दुर्दशा पर बोलनेवाला एक भी व्यक्ति इस मंदिर परिसर में मौजूद नही मिला। मालूम हो कि नेपाली छावनी शिव मंदिर एवं उसका बाहरी परिसर नारायणी नदी के पूर्वी किनारे एक ऊंचे टीले पर अवस्थित है। इस मंदिर के बाहरी परिसर में दक्षिणी किनारे कई मंदिर अस्तित्व में हैं, जिनमें गणिनाथ गोविन्द एवं माता क्षेमासती, विश्वकर्मा भगवान का मंदिर अवस्थित है। तीर्थयात्रियों एवं पर्यटकों के पानी पीने के लिए बाहर चापाकल भी है जहां सफाई की कोई व्यवस्था नही है।

पूरब के मुख्य द्वार से मंदिर में भीतर प्रवेश करने से पहले ऊपर नजर पड़ती है, जहां पुरातत्व निदेशालय द्वारा ‘वैधानिक सूचना पट्ट’ प्रदर्शित है। जो रखरखाव के अभाव के कारण अब धुंधला पड़ गया है। लिखावट मिट रही है। बड़ी कठिनाई से पर्यटक या स्थानीय तीर्थयात्री पढ़ पाते हैं। इसे पुरातत्व विभाग ने वर्षों से बदलने की कोशिश भी नही की है।

वैधानिक सूचना पट्ट की लिखावट स्वयं अस्तित्वविहीन होता दिख रहा है। जिसमें इस स्मारक को किसी प्रकार की क्षति, स्थानांतरित, परिवर्तित, विरुपित, दुरूपयोगित करने तथा सुरक्षित क्षेत्र के भीतर राज्य सरकार के अनुमति के वगैर किसी भी तरह की खुदाई, उत्खनन आदि का उलंघन पर कारावास या जुर्माना या दोनों प्रकार के दंड का प्रावधान है। अंकित किया हुआ है।

इस नेपाली छावनी शिव मंदिर की आंखों देखी बात बताते हैं। पुराणों ने शिव को समस्त जीवों का स्वामी बताया है। इसी कारण इनका एक सुप्रसिद्ध नाम ‘पशुपतिनाथ’ भी है।तभी तो सभी जीव उनसे अपना नाता जोड़ते हैं। ऐसा ही एक दृश्य 10 जनवरी को नेपाली छावनी शिव मंदिर में देखने को मिला।

मंदिर के सभी दरवाजे खुले हुए थे। यहां शिव भक्त बकरी शिव लिंग के पास खड़ी न जाने अपनी मूक भाषा या बोली में अपने अन्तर्मन से उनसे क्या प्रार्थना कर रही थी? अकेले ध्यान मग्न है और आसपास कोई नही। जीवात्मा और परमात्मा के मिलन का यह दृश्य मुझे आज तब देखने को मिला जब कौनहारा घाट स्थित नेपाली छावनी शिव मंदिर पहुंचा। दोपहर के बारह बज रहे होंगे। मंदिर के भीतरी भाग में पूर्णतः सन्नाटा का आलम था।

एक भी भक्त उस समय पूजा-अर्चना या जलाभिषेक करते नही मिला। मिला तो शिव लिंग के समीप यह शिव भक्त जीव बकरी। अपलक तन्मय होकर खड़ी शिव लिंग को निहार रही थी।निर्विकार अन्यत्र कहीं ध्यान नही। पशु भी जिनके अति प्रिय हैं वे पशुपति नाथ यहां नेपाली छावनी में विराजते हैं।

इसी लिए इनका एक नाम पशुपतिनाथ भी है। इस मौके पर उक्त शिव भक्त बकरी का ध्यान भंग किए बिना ही जब मैंने दरवाजे के चौखट की ओट से अपने मोबाइल में उस दृश्य को कैद किया तो वह बकरी चौक सी गई। निश्चित रुप से थोड़ी देर के लिए बकरी का ध्यान भंग हुआ और वह सावधान होकर दरवाजे की ओर देखने लगी। पर उसे कोई नजर नही आया। उसकी पूजा में व्यवधान डालना मेरा उद्देश्य भी नही था।

नीचे सीढ़ियों से उतरकर मंदिर परिसर में घूमने लगा कि कोई तो मिलेगा जो इसके बारे में जानकारी दे सके। तभी कुछ रहिवासियों की आपस में बातचीत की आवाज सुनाई पड़ी। उस ओर बढ़ा तो देखा कि परिसर के उत्तरी भाग में बने छावनी के छोटे-छोटे बने खुले कोठरीनुमा हवन कुंड के पास कुछ बच्चे अलाव ताप रहे थे।

उन्हीं से पूछा तो बताया कि बकरी तो यहीं आसपास की है और अगल-बगल में ढ़ेर सारी बकरियों के साथ चरती रहती है।पर, जब भी मंदिर परिसर में एकांत-शांत वातावरण हो जाता है तो यह एक मात्र बकरी भयरहित होकर मंदिर परिसर में आ जाती है और इसी तरह बाबा भोले के सामने खड़ा होकर न जाने क्या कुछ प्रार्थना करती रहती है।

इस अदभुत दृश्य को इसलिए लोग नही देख पाते क्योंकि मंदिर में जब कोई प्रवेश करता है तो उसकी आवाज सुनकर उक्त बकरी दूसरे दरवाजे से बाहर निकल जाती है।

दूसरी तरह आम बोलचाल की भाषा में इसे यह भी कह सकते हैं कि नेपाली शिव मंदिर इतनी असुरक्षित है कि अब मंदिर के भीतर जीव-जंतुओं का बसेरा हो गया है और मंदिर का कोई रखवाला नही।

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