एस. पी. सक्सेना/रांची (झारखंड)। संविधान निर्माता बाबा साहब डॉ भीमराव अंबेडकर जयंती पर आदिवासी मूलवासी जनाधिकार मंच के केंद्रीय उपाध्यक्ष विजय शंकर नायक ने जगत प्रहरी को विशेष लेख भेजी गयी है।
केंद्रीय उपाध्यक्ष विजय शंकर नायक के अनुसार अंबेडकर के सामाजिक सुधार आंदोलन न केवल दलित उत्थान के लिए थे, बल्कि पूरे भारतीय समाज को जाति, असमानता और अन्याय से मुक्त करने का एक क्रांतिकारी प्रयास थे। उनके प्रमुख आंदोलनों, उनके प्रभाव और आज की प्रासंगिकता को विस्तार से समझने की जरूरत है।
बाबा साहब अंबेडकर और सामाजिक सुधार आंदोलन: एक क्रांतिकारी यात्रा
देश में सामाजिक क्रांति के प्रणेता डॉ भीमराव अंबेडकर भारतीय इतिहास में सामाजिक सुधार के सबसे बड़े प्रतीक हैं। 14 अप्रैल, 1891 को जन्मे अंबेडकर ने अपने जीवन को दलितों, शोषितों और वंचितों के उत्थान के लिए समर्पित किया। उनके सामाजिक सुधार आंदोलन केवल सामाजिक परिवर्तन तक सीमित नहीं थे, बल्कि यह एक वैचारिक क्रांति थे, जिसने भारतीय समाज की जड़ों को हिलाकर रख दिया। उनकी जयंती के अवसर पर उनके इन आंदोलनों को याद करना और उनके संदेश को आत्मसात करना आज भी उतना ही जरूरी है।
अंबेडकर का मानना था कि सामाजिक समानता के बिना राजनीतिक स्वतंत्रता अधूरी है। यही विचार उनके आंदोलनों का आधार बना। अंबेडकर के सामाजिक सुधार आंदोलन व्यवस्थित, तर्कसंगत और समाज की गहरी समस्याओं को जड़ से उखाड़ने वाले थे। उनके प्रमुख आंदोलनों का विस्तृत विवरण और विश्लेषण में महाड़ सत्याग्रह (1927): जल का अधिकार, सम्मान की लड़ाई
महाराष्ट्र के महाड़ में दलितों को चवदार तालाब से पानी लेने की अनुमति नहीं थी, क्योंकि इसे उच्च जातियों के लिए आरक्षित माना जाता था। यह छुआछूत और सामाजिक भेदभाव का प्रतीक था। 20 मार्च 1927 को अंबेडकर ने हजारों दलितों के साथ महाड़ में सत्याग्रह किया और तालाब से पानी लिया। यह सत्याग्रह न केवल पानी के अधिकार के लिए था, बल्कि दलितों के आत्म सम्मान और सामाजिक समानता की मांग थी। जब उच्च जातियों ने हिंसक प्रतिक्रिया दी, तो अंबेडकर ने 25 दिसंबर 1927 को दूसरा सत्याग्रह आयोजित किया और मनुस्मृति की प्रति जलाकर सामाजिक असमानता को बढ़ावा देने वाली प्रथाओं का विरोध किया।
यह आंदोलन दलितों में आत्म विश्वास और जागरूकता का प्रतीक बना। इसने पहली बार राष्ट्रीय स्तर पर छुआछूत के खिलाफ एकजुटता का संदेश दिया। मनुस्मृति दहन ने हिंदू धर्म की उन प्रथाओं पर सवाल उठाए, जो असमानता को बढ़ावा देती थी। महाड़ सत्याग्रह केवल एक स्थानीय घटना नहीं थी। यह सामाजिक क्रांति का पहला बड़ा कदम था। अंबेडकर ने इसे एक प्रतीकात्मक लड़ाई बनाया, जो यह दिखाती थी कि पानी जैसे बुनियादी अधिकारों से वंचित करना सामाजिक अन्याय का सबसे क्रूर रूप है। यह आंदोलन आज भी प्रासंगिक है, क्योंकि कई ग्रामीण क्षेत्रों में दलितों को अभी भी सार्वजनिक संसाधनों तक समान पहुंच नहीं है।
काला राम मंदिर प्रवेश आंदोलन (1930): धार्मिक समानता की मांग।
नासिक के काला राम मंदिर में दलितों को प्रवेश की अनुमति नहीं थी, जो हिंदू धर्म में व्याप्त भेदभाव का प्रतीक था। वर्ष 1930 में अंबेडकर ने दलितों के साथ मिलकर मंदिर में प्रवेश के लिए सत्याग्रह शुरू किया। हजारों दलित रहिवासी इस आंदोलन में शामिल हुए। उन्होंने मंदिर के बाहर धरना दिया। यह आंदोलन कई महीनों तक चला, लेकिन उच्च जातियों के विरोध के कारण दलितों को प्रवेश नहीं मिला। इसने धार्मिक स्थानों में भेदभाव के खिलाफ राष्ट्रीय बहस छेड़ दी। जिससे दलितों में संगठित प्रतिरोध की भावना जागृत हुई।
अंबेडकर ने यह स्पष्ट किया कि सामाजिक सुधार के बिना धार्मिक सुधार अधूरा है। काला राम मंदिर आंदोलन ने यह सवाल उठाया कि क्या धर्म वास्तव में सभी के लिए है? अंबेडकर ने मंदिर प्रवेश को न केवल धार्मिक अधिकार, बल्कि सामाजिक समानता का मुद्दा बनाया। यह आंदोलन उनकी उस सोच को दर्शाता है कि सामाजिक सुधार तब तक संभव नहीं, जब तक धर्म और समाज के बीच की दीवारें नहीं टूटतीं। आज भी कई धार्मिक स्थानों पर यदाकदा भेदभाव की घटनाएं देखने को मिलती हैं, जो इस आंदोलन की प्रासंगिकता को रेखांकित करती हैं।
पुणे समझौता (1932) राजनीतिक प्रतिनिधित्व की जीत।
वर्ष 1932 में ब्रिटिश सरकार ने कम्युनल अवार्ड की घोषणा की, जिसमें दलितों को अलग निर्वाचन का अधिकार दिया गया। इससे दलितों को अपनी पसंद के प्रतिनिधि चुनने का मौका मिलता, लेकिन महात्मा गांधी ने इसे हिंदू समाज को विभाजित करने वाला माना और इसके खिलाफ अनशन शुरू किया। अंबेडकर ने शुरू में अलग निर्वाचन का समर्थन किया, क्योंकि उनका मानना था कि दलितों को बिना स्वतंत्र राजनीतिक आवाज के न्याय नहीं मिलेगा। लेकिन गांधी के अनशन और सामाजिक दबाव के कारण, अंबेडकर ने 24 सितंबर 1932 को पुणे समझौते पर हस्ताक्षर किए। इसके तहत दलितों को अलग निर्वाचन के बजाय संयुक्त निर्वाचन में आरक्षित सीटें दी गई।दलितों को विधायिकाओं में प्रतिनिधित्व मिला, जो उनकी आवाज को मजबूत करने का पहला कदम था। इसने अंबेडकर को राष्ट्रीय नेता के रूप में स्थापित किया।
लेकिन, कुछ दलित नेताओं ने इसे अंबेडकर की हिंदू नेताओं के सामने झुकने की घटना के रूप में देखा, जो उनके लिए एक कठिन निर्णय था।
पुणे समझौता अंबेडकर की राजनीतिक दूरदर्शिता और सामाजिक एकता के प्रति उनकी प्रतिबद्धता को दर्शाता है। उन्होंने दलितों के हितों को सुरक्षित रखते हुए राष्ट्रीय एकता को प्राथमिकता दी। यह समझौता आज भी आरक्षण और प्रतिनिधित्व के सवालों को समझने के लिए महत्वपूर्ण है।
बौद्ध धर्म की ओर कदम (1956): धार्मिक और सामाजिक क्रांति
अंबेडकर ने हिंदू धर्म की उन प्रथाओं की आलोचना की, जो जातिगत असमानता को बढ़ावा देती थीं। उनकी पुस्तक *Annihilation of Caste” (1936)* में उन्होंने तर्क दिया कि जाति व्यवस्था को खत्म किए बिना सामाजिक सुधार संभव नहीं है। जब हिंदू धर्म में सुधार की उनकी उम्मीदें पूरी नहीं हुईं, तो उन्होंने वैकल्पिक रास्ता चुना। 14 अक्टूबर 1956 को महाराष्ट्र के नागपुर में अंबेडकर ने अपनी पत्नी सविता अंबेडकर और लाखों अनुयायियों के साथ बौद्ध धर्म ग्रहण किया। उन्होंने बौद्ध धर्म के 22 व्रतों को अपनाया और इसे एक तर्कसंगत, समतामूलक धर्म के रूप में प्रस्तुत किया। इसने देश के लाखो दलितों को एक नई पहचान और आत्मसम्मान दिया।
बौद्ध धर्म भारत में नव-बौद्ध आंदोलन के रूप में उभरा, जो सामाजिक समानता का प्रतीक बना। इसने जाति व्यवस्था के खिलाफ एक वैचारिक क्रांति को जन्म दिया। बौद्ध धर्म ग्रहण करना अंबेडकर का सबसे क्रांतिकारी कदम था। यह न केवल धार्मिक परिवर्तन था, बल्कि सामाजिक व्यवस्था को चुनौती देने का एक साहसिक कदम था। आज नव-बौद्ध आंदोलन दलितों और अन्य वंचित समुदायों के लिए सांस्कृतिक और सामाजिक पहचान का महत्वपूर्ण हिस्सा है।
महिलाओं के अधिकार और हिंदू कोड बिल
अंबेडकर का मानना था कि सामाजिक सुधार तब तक अधूरा है, जब तक महिलाओं को समान अधिकार न मिलें। उस समय हिंदू महिलाओं को संपत्ति, विवाह और तलाक में बहुत कम अधिकार थे। स्वतंत्र भारत के पहले कानून मंत्री के रूप में अंबेडकर ने हिंदू कोड बिल प्रस्तावित किया, जिसमें महिलाओं को संपत्ति में हिस्सा, तलाक का अधिकार और एक पत्नीत्व को अनिवार्य करने जैसे प्रावधान थे। हालांकि, रूढ़िवादी विरोध के कारण यह बिल पारित नहीं हो सका, जिसके चलते अंबेडकर ने कानून मंत्री के पद से इस्तीफा दे दिया।
हिंदू कोड बिल ने महिलाओं के अधिकारों पर राष्ट्रीय बहस छेड़ दी। बाद में इसके कई प्रावधान हिंदू मैरिज एक्ट, हिंदू सक्सेशन एक्ट आदि के रूप में लागू किया गया। इसने अंबेडकर को नारीवादी विचारक के रूप में स्थापित किया।
अंबेडकर का हिंदू कोड बिल सामाजिक सुधार का एक दूरदर्शी दस्तावेज था। यह केवल महिलाओं के अधिकारों तक सीमित नहीं था, बल्कि हिंदू समाज की पितृसत्तात्मक संरचना को चुनौती देता था। आज जब लैंगिक समानता की बात होती है, तो अंबेडकर का यह योगदान प्रेरणा देता है।
समान शिक्षा और जागरूकता के लिए आंदोलन
अंबेडकर का मानना था कि शिक्षा सामाजिक क्रांति का सबसे बड़ा हथियार है। दलित समुदाय को शिक्षा से वंचित रखा गया था, जिसके कारण वे सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़ गए।अंबेडकर ने मूकनायक (1920), बहिष्कृत भारत और जनता जैसे समाचार पत्र शुरू किए, जो दलितों की आवाज बनी। वर्ष 1945 में उन्होंने पीपल्स एजुकेशन सोसाइटी की स्थापना की और सिद्धार्थ कॉलेज मुंबई जैसी संस्थानों की शुरुआत की। उनका नारा शिक्षित बनो, संगठित रहो, संघर्ष करो दलितों और वंचितों के लिए मंत्र बन गया। इससे दलितों में शिक्षा के प्रति जागरूकता बढ़ी। इन प्रयासों ने दलित मध्यम वर्ग के उदय में योगदान दिया। आज भी अंबेडकरवादी संगठन शिक्षा को सामाजिक बदलाव का आधार मानते हैं।
अंबेडकर ने शिक्षा को न केवल व्यक्तिगत विकास, बल्कि सामूहिक सशक्तिकरण का साधन बनाया। उनका यह दृष्टिकोण आज भी प्रासंगिक है, जब शिक्षा तक पहुंच और गुणवत्ता सामाजिक समानता के लिए महत्वपूर्ण मुद्दे बने हुए हैं।
अंबेडकर के सामाजिक सुधार आंदोलनों में कुछ खास विशेषताएं थीं, जो उन्हें अन्य समकालीन सुधारकों से अलग बनाती थी। अंबेडकर ने अपने आंदोलनों को तर्क, विज्ञान और मानवतावाद पर आधारित किया। उनकी पुस्तकें और भाषण तथ्यों और विश्लेषण से भरे होते थे। उनके आंदोलन सत्याग्रह और वैधानिक तरीकों पर आधारित थे, जो गांधीवादी दृष्टिकोण से प्रेरित थे, लेकिन दलितों की विशिष्ट समस्याओं पर केंद्रित थे।
अंबेडकर ने न केवल दलितों, बल्कि महिलाओं, मजदूरों और अन्य वंचित समूहों के लिए भी काम किया। उन्होंने सामाजिक सुधार को संवैधानिक ढांचे के माध्यम से लागू करने पर जोर दिया, जैसा कि संविधान और हिंदू कोड बिल में देखा जा सकता है। अंबेडकर ने केवल सामाजिक प्रथाओं को नहीं, बल्कि समाज की मानसिकता को बदलने का प्रयास किया। उनकी *Annihilation of Caste* जैसी रचनाएं इसकी मिसाल हैं। आज की प्रासंगिकता अंबेडकर के सामाजिक सुधार आंदोलन आज भी उतने ही प्रासंगिक हैं, जितने उनके समय में थे।
देश के ग्रामीण और शहरी दोनों क्षेत्रों में जातिगत हिंसा और भेदभाव की घटनाएं जारी हैं। अंबेडकर का जाति उन्मूलन का विचार आज भी नीति-निर्माण और सामाजिक आंदोलनों को प्रेरित करता है। शिक्षा तक पहुंच में असमानता अभी भी एक बड़ी चुनौती है। अंबेडकर का शिक्षा पर जोर हमें समावेशी नीतियों की ओर ले जाता है। लैंगिक भेदभाव और हिंसा के खिलाफ चल रहे आंदोलनों में अंबेडकर का हिंदू कोड बिल प्रेरणा देता है। आरक्षण पर चल रही बहस में अंबेडकर का दृष्टिकोण हमें यह समझने में मदद करता है कि यह सामाजिक न्याय का साधन है, न कि विशेषाधिकार।
बौद्ध धर्म ग्रहण करने का उनका निर्णय आज भी दलितों और अन्य समुदायों को सामाजिक और सांस्कृतिक पहचान दे रहा है। हर साल 14 अप्रैल को अंबेडकर जयंती के अवसर पर उनके सामाजिक सुधार आंदोलनों को याद किया जाता है। यह दिन न केवल उत्सव का है, बल्कि आत्म मंथन और संकल्प का भी है। रैलियों, सेमिनारों और बौद्ध धम्म के प्रचार के माध्यम से आमजन अंबेडकर के विचारों को जीवित रखते हैं।
अंबेडकर जयंती हमें याद दिलाती है कि सामाजिक सुधार एक सतत प्रक्रिया है। हमें न केवल उनके आंदोलनों से प्रेरणा लेनी चाहिए, बल्कि अपने स्तर पर छोटे-छोटे प्रयासों से समाज को समतामूलक बनाने में योगदान देना चाहिए। बाबा साहब अंबेडकर के सामाजिक सुधार आंदोलन भारतीय समाज के लिए एक मशाल की तरह हैं। उन्होंने न केवल दलितों को आवाज दी, बल्कि पूरे समाज को यह दिखाया कि समानता, स्वतंत्रता और बंधुत्व के बिना कोई समाज प्रगति नहीं कर सकता। उनके आंदोलन हमें सिखाते हैं कि बदलाव आसान नहीं होता, लेकिन यदि इच्छाशक्ति और तर्क हो, तो कोई भी दीवार तोड़ी जा सकती है। अंबेडकर जयंती पर हमें उनके सपनों के भारत जहां कोई भेदभाव न हो के लिए काम करने का संकल्प लेना चाहिए।
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