अमित कुमार/मुजफ्फरपुर (बिहार)। जॉर्ज साहब (जॉर्ज फर्नांडीज) हमारे बीच नहीं रहे। कोई आश्चर्य नहीं हुआ यह सुनकर, क्यूँकि अपनी अज्ञात बीमारी के कारण वर्षों से हमसे दूर जो हो गए थे। आज तो सिर्फ उनकी आत्मा निकली है।
वैसे भी जनता दल की नींव डालने वाले, कांग्रेस (Congress) की जड़ें हिलाने वाले, पाकिस्तान को नाको चने चबवाने वाले, एनडीए के पहले संयोजक, मुजफ्फरपुर (Muzaffarpur) को विश्व पटल पर पहचान दिलानेवाले मजदुर नेता पद्मविभूषण से सम्मानित भारत के पूर्व केंद्रीय मंत्री, पूर्व राज्य सभा सांसद, प्रखर पत्रकार और कुशल राजनीतिज्ञ जॉर्ज फ़र्नान्डिस की पुण्यतिथि पर उन्हें विनम्र श्रद्धांजलि अर्पित करता हूँ।
जॉर्ज फ़र्नान्डिस केवल नाम ही काफी है। मुंबई का जॉर्ज (George of Mumbai), जिसके एक इशारे पर बेस्ट के पहिये तो ठीक, रेल के चक्के भी जाम हो जाते थे। वह आंदोलनों, बंद और हड़ताल का युग था, क्योंकि कांग्रेस का राज था और विपक्ष मज़बूत।
यही जॉर्ज गांधीवादी मोरारजी भाई देसाई की संगति में शांत, गंभीर और ज़िम्मेदार हो गया। अटलजी का साथ दिया, लेकिन अटल साथ छोड़ गए। एक समाजवादी शेर के रूप में अपने आप को स्थापित किया। उनके तृतीय पुण्यतिथि पर स्मरण करता हूँ।
जॉर्ज फ़र्नान्डिस भारत के प्रखर राजनेता थे। उनका जन्म मैंगलोर में 3 जून 1930 को हुआ। स्कूल की पढ़ाई के बाद 1946-1948 तक पादरी का प्रशिक्षण भी प्राप्त किया।1949 में वे मुंबई काम की तलाश में आ गए, जहां उन्हें काफ़ी मुश्किलों का सामना करना पड़ा।
1950 में राममनोहर लोहिया के सम्पर्क में आए और सोशलिस्ट ट्रेड यूनियन के आंदोलन में शामिल हो गए। उसी वर्ष वे वहां के मजदूरों की आवाज बन गए।
1961 तथा 1968 में बॉम्बे म्युनिसिपल कॉर्पोरेशन के सदस्य रहे। 1967 में वे पहली बार लोक सभा का चुनाव जीते, तत्पश्चात् कई बार राज्यसभा और लोकसभा के सदस्य रहे। भारत के रेल, संचार, उद्योग और रक्षा मंत्री रहे।
उन्होंने समता पार्टी की स्थापना की। उनके रक्षा मंत्रित्व कार्यकाल में ही भारत ने पोखरण परमाणु परीक्षण किया तथा करगिल युद्ध हुआ।राजनीति में एकमात्र जॉर्ज हीं ऐसे राजनेता रहे, जिन्हें उनके विरोधी भी जॉर्ज साहब कहकर पुकारते थे। लम्बी बीमारी के बाद तीन वर्ष पूर्व 29 जनवरी 2019 को उनका निधन हो गया। 2020 में इन्हें (मरणोपरांत) पद्म विभूषण से सम्मानित किया गया।
हम कह सकते है की वो बिहार के बिभूति थे। भारत में ट्रेड यूनियन के सबसे बड़े नेता, प्रखर समाजवादी, ठेठ बिहारी स्टाइल में उन्होंने बिहार को कर्मभूमि बनाया और बिहार के ही होकर रह गए। बातचीत के क्रम में मुज़फ़्फ़रपुर के महंत राजीव रंजन दास एक स्मरण बताते है कि 1989 का लोक सभा चुनाव था।
जॉर्ज साहब और स्व. ललितेश्वर प्रसाद शाही का कड़ा मुकाबला चल रहा था (गिनती में एकतरफा ही रहा)। चुनाव क्षेत्र में स्व ललितेश्वर शाही के पुत्र स्व हेमंत शाही की दबंगई और जीवटता की भी चर्चा खुले आम ही होती रहती थी। महंत खुद सीतामढ़ी और शिवहर लोकसभा में ज्यादा समय दे रहे थे।
उस समय तक उनके मस्तिक में जॉर्ज का मोरारजी सरकार के खिलाफ धोखा और फिर 84 के लोकसभा चुनाव में मुजफ्फरपुर छोड़ कर भाग जाना समाया हुआ था। फिर शाही पड़ोसी भी ठहरे और हेमंत से स्नेह पूर्ण रिश्ता भी था। ऐसे हालात में मुजफ्फरपुर से अलग रहने में ज्यादा सुकून मिल रहा था। वे खुले मन से पार्टी के लिए काम भी कर ही रहे थे।
मुजफ्फरपुर में प्रचार-प्रसार में कभी कभी तनाव भी हो जाता रहता था, क्योंकि बगल के वैशाली में भी दो नामचीन घराने आमने सामने की लड़ाई में थे। एक तरफ पूर्व मुख्यमंत्री अनुग्रह नारायण सिंह की बहू तथा उस समय के वर्तमान बिहार के मुख्यमंत्री सत्येन्द्र नारायण सिंह की पत्नी, तो दूसरी ओर अपने जमाने के कद्दावर नेता रहे स्व महेश प्रसाद सिंह की बेटी।
जॉर्ज की तो पुरानी आदत थी कि वह एक बार नामांकन के समय और एक बार अंत में ही अपने क्षेत्र में आते थे। वोट के बाद जॉर्ज को पटना से प्लेन पकड़ कर कहीं दूसरे राज्य की तरफ चले जाना था। सुबह में महंत जी को स्व. प्रो अरुण कुमार सिंह (समाजवादी नेता व् स्वतंत्रता सेनानी स्व बसावन सिंह के पुत्र) ने फोन कर कहा कि “जॉर्ज को आपकी ही गाड़ी से पटना लेकर चलना है।
आप तैयार रहेंगे। 4 बजे शाम में जॉर्ज, अरुण और 2 अन्य व्यक्ति मेरे साथ चलेगे। संयोग बस मारुति महंत जी ही चला रहे थे।मलंग स्थान (रामदयालु नगर) पर अरुण जी ने उन्हें गाड़ी रोकने को कहा। उन्हे आश्चर्य हुआ कि अरुण जी तो मेरे तरह ही गाड़ी आगे चलाने वाले में शामिल रहते थे।
खैर गाड़ी रुकी और अरुण जी ने जॉर्ज को कहा कि आप खुद अपने हाथ से 10 रुपया पुजारी के हाथ में दें। जॉर्ज ने वैसा ही किया भी, फिर जब गाड़ी आगे बढ़ी तो जॉर्ज ने अरुण जी से पूछा कि तुमने मुझसे पैसे क्यों दिलाया, तब मुस्कुराते हुए अरुण जी ने बताया कि साहब यह शुभ होता है। वैसे भी आज वोटिंग थी और आप सफल हों बस इसी लिये।
जॉर्ज ने भी अरुण जी की बात खत्म होते ही कहा कि कहीं अगर ललितेश्वर जी ने 20/-दे दिया फिर क्या होगा। महंत राजीब रंजन दास ने कहा कि वैसे मेरी ही गाड़ी से पटना चलने के पीछे भी कुछ राज ही था, जो मुझे भी बाद में ही बताया गया कि किसी भी दूसरी गाड़ी से जाने पर शायद कुछ होता भी।
उस समय तो कुछ नहीं हुआ, मगर 1994 में लालू प्रसाद यादव के साथ छोड़ने पर फकुली में जॉर्ज और उनके काफिले के साथ की घटना तो पुरे बिहार के लोग जानते ही हैं। उनके विचार और आदर्श हमें सदैव दिशा दिखाने का काम करेंगी।
[लेखक स्वतंत्रता आंदोलन परिवार का सदस्य है]
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