धार्मिक उन्माद ने हमारी चेतना को कुंद कर रखा है-विकास सिंह

एस.पी.सक्सेना/ बोकारो। अपनी बेबाक विचारों से सुर्खियों में रहनेवाले झारखंड (Jharkhand) के राजनीतिक विश्लेषक देश की वर्तमान हालातों पर दृष्टि डाला है। सिंह के शब्दों में देर से हीं सही अमरीका में लोगों को एहसास हो रहा है कि एक पागल और मूर्ख की सरकार के पैदा किये हालात ने फिज़ा में कितनी नफरत घोल दी है। हिंदुस्तान अभी इस एहसास से दूर एक काल्पनिक लोक में विचरण कर रहा है जहां यथार्थ उसे नजर नहीं आ रहा है।

अभी दम केवल मजदूरों का घुट रहा है। अभी लिंचिंग केवल दलितों और अल्पसंख्यकों की हो रही है। अभी केवल वो जेलों में ठूसें जा रहे हैं जो व्यवस्था से असहमत हैं, लेकिन आपको लोकतंत्र का गला घोंटे जाने की साजिशों का एहसास नहीं हो रहा है। मुजफ्फरपुर, गोरखपुर, पटना में बच्चियों के उपर अत्याचार और देश भर में अलग-अलग इलाकों में हुई ऐसी साजिशों की आंच अभी आपके दरवाजे तक नहीं पहुंची है। अभी मजदूरों का खून और पसीना, आपको केवल किसी टीवी चैनल की एक खबर भर लग रही है।अभी ‘लॉकडाउन-जनित बेरोजगारी’ से त्रस्त होकर आत्महत्या करनेवाले लोगों में आपका कोई अपना शामिल नहीं है और होना भी नहीं चाहिए, लेकिन आप तो अभी अपनी सेहत को लेकर फिक्रमंद हैं।

अभी ना तो ये चीखें आपके कानों तक पहुंच रही हैं। ना इनका गुस्सा आपको ये बतला रहा है कि आपकी हालत, अमरीका से ज़्यादा बदतर है। आपकी गर्दन भी घोटी जा रही है; लेकिन ताली, थाली और मोमबत्तियों ने आपकी चेतना का गला घोंट रखा है। अभी आपने भी अपनी तर्कशक्ति को, अपनी इंसानी संवेदनाओं को, अपने सवालों को एक ऐसी चेतना-शून्य जकड़न के हवाले कर रखा है, जिससे आज़ादी पाना आसान नहीं है।

अभी आपको एहसास नहीं है कि उस अमरीकी पुलिस अफसर के बूटों की धमक, आपकी गलियों तक सुनाई देना शुरू हो गया है। अभी आप “दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र” की गौरव गाथाओं को ही पढ़ रहे हैं। अभी आपने अपने लोकतांत्रिक मूल्यों पर हमलों से आंखें मूंद रखी है। अभी आपको अपने देश की न्याय व्यवस्था के पतन का अंदाजा नहीं है। आपको शायद इस बात का अनुमान भी नहीं है कि आपकी अपनी स्वतंत्रता किस पूंजी की जकड़न में कराह रही है।

आपको यह याद नहीं है कि आज आप जिस स्वतंत्रता के गीत गा रहे हैं, वो किन कुर्बानियों से हासिल हुई थी। अभी तो आपको अपने ही संविधान की प्रस्तावना, कागज का एक टुकड़ा भर लगने लगा है। आप ये भी भूल गए हैं कि इस संविधान का, इस देश की आकांक्षाओं से क्या रिश्ता है। आपको भी ये लगने लगा है कि संविधान की प्रस्तावना में ‘समाजवादी’ और ‘ धर्म निरपेक्ष’ शब्द किसी 42वें संशोधन के जरिये घुसा दिए गए हैं और इसका ना तो हमारे महान स्वतंत्रता आंदोलन के मूल्यों से कोई लेना-देना था, ना ही इस देश के निर्माण में इन मूल्यों का कोई योगदान था।

आप जितना संविधान को रद्दी की टोकरी में डालना चाह रहे हैं, अपनी ही स्वतंत्रता का गला भी घोंट रहे हैं। आपको इस बात का भी एहसास नहीं है। ज़रा अपनी संवेदनाओं को कुरेद कर देखिए। अपनी चेतना को झकझोरिये। अपने विवेक को काम पर लगाइए। स्वतन्त्रता की अपनी आकांक्षाओं को थोड़ा महसूस कीजिये और सोचिए कि ये स्वतंत्रता, किस कीमत पर हासिल हुई और आप कितनी आसानी से, बिना कोई सवाल किए, खुद को अविवेकी भीड़ का हिस्सा बनाते जा रहे हैं। सोचिए कि दुनिया के सबसे विकसित राष्ट्र होने का दम भरने वाले अमरीका में, अश्वेतों के खिलाफ नफरत किस अमानवीय हद तक है। सोचिए कि आपको किस आसानी से इस तरह की नफरत की आग में झोंक दिया जा रहा है। क्या आपको नहीं लगता कि आपकी अपनी स्वतन्त्रता की मॉब लिंचिंग हो रही है?

सोचिए कि विज्ञान, तर्क, सदभाव, प्रेम, आस्था के गंगा जमुनी रंग सबको कुचल कर आप कैसे अपनी आज़ादी को बचा सकेंगे? अक्सर अमरीका से आप बहुत कुछ पाने को व्याकुल नज़र आते हैं। थोड़ा इस नफरत के अनुभव और इसके खिलाफ सभ्य अमरीकी समाज के गुस्से को भी महसूस कीजिये। शायद आपको अपनी गर्दन पर भी जकड़न का एहसास होने लगेगा।

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