चुनाव हारने का रिकॉर्ड बनाने वाले 5 महारथी

धरती पकड़ के नाम 350 चुनाव लड़ने का रिकॉर्ड

मुश्ताक खान/मुंबई। देश में कुछ ऐसे लोग हैं, जिन्होंने चुनाव लड़ने का रिकॉर्ड कायम किया है। अक्सर चुनाव में हार जीत होती है लेकिन रिकॉर्ड बनाने वाले सिर्फ हारने के लिए चुनावी मैदान में ताल ठोकते हैं। इनमें सबसे पहला नाम काका जोगिंदर सिंह (Kaka Jogindra Singh) उर्फ धरती पकड़ (Dharti Pakad) का आता है। उन्होंने अपने जीवन काल में कुल 350 चुनाव लड़े, लेकिन हारकर न सिर्फ अपने लिए पहचान और रिकॉर्ड कायम किया। बल्कि उन्होंने देश में होने वाले चुनावों के तरीकों में बदलाव कराया है।

एक सर्वेक्षण के मुताबिक धरती पकड़ उर्फ काका जोगिंदर सिंह के अलावा तमिलनाडु के पाराजन 177 बार चुनाव लड़ चुके हैं। उत्तर प्रदेश के शाहजहांपुर निवासी किशनलाल वैद्य, मध्यप्रदेश के ग्वालियर में चाय बेचने वाले आनंद सिंह कुशवाहा, उत्तर प्रदेश के मऊ जिले के हिसामुद्दीन, आगरा के रामफेर उर्फ चुंटी, बिहार के भागलपुर नागरमल बाजौरिया का समावेश है।

बाजौरिया अब तक कश्मीर से लेकर कन्याकुमारी तक देश के अलग-अलग हिस्सों से करीब 282 बार चुनावों में अपनी दावेदारी ठोकी है। इनमें कुछ लोग ऐसे भी हैं जो हर बार चुनावी मैदान में उतरकर ताल ठोकते हैं, भले ही उनकी कवायद सिर्फ ताल ठोकने तक ही रह जाए। ऐसे लोग चुनाव में ताल ठोकते हैं और रेफरी यानी चुनाव आयोग उन्हें लड़ने के लिए अयोग्य मानकर पवेलियन का रास्ता दिखा देता है।

चुनावी में ताल ठोकने वाले महारथी

आइए अब हम आप को ऐसे शूरवीरों से मिलाते हैं। उत्तर प्रदेश के शाहजहांपुर निवासी किशनलाल वैद्य का ही उदाहरण लें। किशनलाल को स्थानीय लोग नामांकन भरने के लिए भैंसे और अर्थी पर बैठकर ले जाने जैसे अजीबो गरीब कारनामों के लिए जानते हैं। किशनलाल को पूरा भरोसा था कि इस बार के राष्ट्रपति चुनाव में वे जरूर जीतेंगे। यह बात और है की प्रस्तावना के लिए 50 सांसदों का मत नहीं मिलने से उनका नामांकन रद्द हो गया। किशनलाल ऐसे इकलौते शख्स नहीं जो अपने मन में भारत का राष्ट्रपति बनने का सपना देखते हैं।

ऐसे ही मध्यप्रदेश के ग्वालियर में चाय बेचने वाले आनंद सिंह कुशवाहा का नाम भी इसी फेहरिस्त में शामिल है। कुशवाहा का कहना है कि जब एक चाय बेचने वाला देश का प्रधानमंत्री बन सकता है तो कोई दूसरा राष्ट्रपति क्यों नहीं? खबरें बताती हैं की कुशवाहा इससे पहले भी करीब 20 चुनावों में से तीन बार राष्ट्रपति और दो बार उपराष्ट्रपति का नामांकन भर चुके हैं।

वहीं उत्तर प्रदेश के मऊ जिले के हिसामुद्दीन का हाल भी कुछ-कुछ ऐसा है। हिसामुद्दीन अब तक 18 चुनाव हार चुके हैं और भारत के महामहिम बनने का सपना पाले हुए हैं। चार बार राष्ट्रपति पद के लिए चुनाव लड़ चुके बनारस के नरेंद्र नाथ दुबे उर्फ अडिग के अलावा 83 बार चुनाव लड़ चुके हैं। इसी तरह आगरा के रामफेर उर्फ चुंटी भी ऐसे ही रणबांकुरो में शुमार हैं जो देश का प्रथम नागरिक बनने की ख्वाहिश रखते हैं। चुंटी ने तो चुनाव लड़ने की लत के कारण अपनी पत्नी का बिछोह (अलग) भी बर्दाशत कर लिया।

चुनाव हारने के अलावा इन सभी में एक और बात समान है। इन सभी लोगों को अपने-अपने इलाकों में धरती पकड़ के नाम से जाना जाता है। दरअसल धरती पकड़ कुश्ती का दांव होता है जिसमें चित हो चुका पहलवान जमीन से ऐसे चिपक जाता है मानो उसने धरती को पकड़ लिया हो और इस तरह वह हारने से बच जाता है। लेकिन पिछले कुछ दशकों से यह शब्द राजनीति की दुनिया में उन लोगों के लिए इस्तेमाल होने लगा है जिन्होंने चुनाव भले ही बेहिसाब हारे हों, लेकिन उनके आत्मविश्वास ने मानो धरती पकड़ रखी है।

काका जोगिंदर सिंह

पाकिस्तान के गुजरांवाला में पैदा हुए काका जोगिंदर सिंह वह शख्सियत थे जिसे देश की राजनीति में पहले धरती पकड़ के नाम से जाना जाता है। बंटवारे के बाद काका परिवार समेत उत्तर प्रदेश चले आए और 1962 से हर चुनाव में खड़े होने का मानो नियम बना लिया। बताया जाता है कि उत्तर प्रदेश के तीसरे विधानसभा चुनाव में तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू काका को कांग्रेसी उम्मीदवार की तरह मैदान में उतारना चाहते थे। लेकिन जोगिंदर सिंह ने यह कहते हुए मना कर दिया की वे किसी पार्टी से चुनाव नहीं लड़ेंगे।

जानकारों के मुताबिक 1993 के यूपी विधानसभा चुनावों में काका जोगिंदर सिंह ने हरदोई चुनाव की सभी नौ सीटों से अपना नामांकन भर दिया था। इतना ही नहीं साइकिल पर घूम-घूमकर उन्होंने लोगों से खुद को वोट नहीं देने की अनोखी अपील भी की। काका कहते थे कि मैं अपनी जमानत सिर्फ इसलिए जब्त कराता हूं की वह राशि देश के राजस्व में बढ़ोतरी कर सके। लेकिन काका की सरलता से प्रभावित होकर लोग उन्हें वोट डालने से खुद को नहीं रोक पाते थे।

जोगिंदर सिंह की एक खास आदत और थी कि वे हारने पर लोगों को सूखे मेवे और मिश्री खिलाकर उनका मुंह मीठा करते थे। कहा जाता है की 36 सालों में काका ने 350 से ज्यादा चुनावों में अपना नामांकन दाखिल किया जिनमें से कुछ में उनका पर्चा खारिज हो गया और बाकियों में वे हार गए।

80 साल की उम्र में 23 दिसंबर, 1998 में काका जोगिंदर सिंह इस दुनिया से रुखसत हो गए। हालांकि इससे पहले तक काका राजस्व भरने के अनोखे अंदाज का कायम रखा। जो अपने आप में एक रिकॉर्ड है। कहा जाता है कि काका और उनसे प्रभावित हुए दूसरे लोगों की चुनाव लड़ने की लत को देखते हुए ही चुनाव आयोग ने किसी प्रत्याशी के दो से ज्यादा सीटों से चुनाव लड़ने पर रोक लगाई थी।



नागरमल बाजौरिया

काका जोगिंदर सिंह की ही तरह बाजौरिया भी पाकिस्तान में ही पैदा हुए थे। बंटवारे के बाद बाजौरिया बिहार के भागलपुर चले आए। बाजौरिया अब तक करीब 268 चुनावों में अपना नामांकन भर चुके हैं। जिनमें सभासद से लेकर राष्ट्रपति तक का चुनाव शामिल है। नागरमल बाजौरिया इस बारे में उनका कहना है कि मैं लोकतंत्र में एक आम आदमी की अहमियत को बताना और उसे साबित करना चाहता हूं। मेरे लिए जीत-हार कोई मायने नहीं रखती बल्कि मैं समाज को यह संदेश देना चाहता हूं कि देश और लोकतंत्र में सबकी अहमियत बराबर है।

बताया जाता है कि बाजौरिया को सबसे पहले धरती पकड़ उपनाम राजनीति की वजह से नहीं बल्कि समाज सेवा की वजह से मिला था। जब बाजौरिया पाकिस्तान से भागलपुर आए तब वहां पानी की बेहद किल्लत थी। ऐसे में उन्होंने करीब 250 रुपए इकट्ठे किए और लोगों के लिए नलकूप लगवाए। चूंकि यह पानी धरती फाड़कर निकाला गया था तो बाजौरिया के नाम के साथ धरती पकड़ जुड़ गया। बाद में लगातार कई चुनावों में नामांकन भरने और राजनीति में अपनी उपस्थिति बनाए रख, बाजौरिया ने धरती पकड़ नाम को सार्थक किया।

बाजौरिया ने कश्मीर से कन्याकुमारी तक देश के अलग-अलग हिस्सों के चुनावों में अपनी दावेदारी ठोकी है। वे 282 बार चुनाव लड़ चुके हैं। 2012 के राष्ट्रपति चुनाव में प्रणव मुखर्जी के खिलाफ भरा गया इनका नामांकन रद्द कर दिया गया था। इस बार भी ऐसा ही हुआ। इतना ही नहीं, बाजौरिया ने पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी और राजीव गांधी के खिलाफ भी रायबरेली और अमेठी से चुनाव में हाथ आजमा चुके हैं। फिलहाल बाजौरिया समाजसेवा के काम में सक्रिय हैं।

तमिलनाडू के मेट्टर नगर के पाराजन भी धरती पकड़ की सूची में शामिल हैं। पाराजन अब तक 177 बार चुनाव लड़ चुके हैं। इस बार भी उन्होंने राष्ट्रपति चुनाव के लिए अपना नामांकन भरा था जो 50 सांसदों का समर्थन न मिलने से रद्द हो गया। बताया जाता है की 1991 में पूर्व प्रधानमंत्री पी. वी नरसिम्हा राव के खिलाफ पाराजन ने आंध्र प्रदेश के नाड्याल से पर्चा भरा था। जिसके बाद उनका अपहरण हो गया। यही वह घटना थी जिसने पाराजन को आमजन के बीच लोकप्रिय बना दिया।

कभी साइकल पंक्चर बनाने का काम करने वाले पाराजन कहते हैं कि शुरुआत में लोगों ने उनका जमकर मजाक बनाया, लेकिन बाद में उनका हौसला देखते हुए, वही लोग उनके समर्थन में आ गए और अब वे पाराजन को ज्यादा से ज्यादा चुनाव लड़ने के लिए प्रेरित करते हैं। पाराजन का नाम सर्वाधिक चुनाव लड़ने वाले जीवित व्यक्ति के रूप में लिम्का बुक ऑफ रिकॉर्ड में दर्ज है। चुनाव प्रचार में एक रुपया भी खर्च न करने का दावा करने वाले पाराजन का कहना है कि वे पिछले 27 सालों में 12 लाख रुपए जमानत राशि के रूप में राजस्व जमा करवा चुके हैं।

बताया जाता है कि पाराजन तमिलनाडू के एम करुणानिधि, जे जयललिता, पूर्व रक्षा मंत्री एके एंटनी और पूर्व विदेश मंत्री एसएम कृष्णा से लेकर पूर्व प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह और अटल बिहारी वाजपेयी तक के खिलाफ चुनावी मैदान में ताल ठोक चुके हैं। यही नहीं, 2014 के लोकसभा चुनाव में पाराजन प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी के खिलाफ वड़ौदरा सीट से मैदान में उतरे थे। इसे लेकर पाराजन का कहना है कि उस समय उन्हें नरेंद्र मोदी से ज्यादा और कोई महत्वपूर्ण प्रतिद्वंदी नहीं मिला।

”किसी ने सही कहा है,

मंजिल मिले न मिले इसका गम नहीं, मंजिल की जुस्तजू में मेरा कारवां तो है…

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