अदम्य साहसिक थे स्वतंत्रता सेनानी युगेश्वर ठाकुर उर्फ भुलर ठाकुर

गंगोत्री प्रसाद सिंह/हाजीपुर (वैशाली)। वैशाली जिले (Vaishali district) के पटेढ़ी बेलसर प्रखंड के मानपुरा ग्राम के एक सामान्य किसान बाबू ननु ठाकुर के पुत्र के रूप में युगेश्वर ठाकुर का जन्म 25 जून 1900 को हुया। प्रारम्भिक शिक्षा बगल के गांव बेलसर साईं हाई स्कूल में युगेश्वर ठाकुर का नाम लिखाया गया।

बचपन से ही युगेश्वर ठाकुर बहुत कम बोलते थे, लेकिन इनको खुराफात में खूब मन लगता था। उन दिनों मुजफ्फरपुर (Muzaffarpur) के सरैया में नीलहे अंग्रेजो की कोठी थी। अंग्रेज घोड़े पर बराबर बेलसर से गुजरते थे। जलियाबाला बाग कांड के बाद देश में अंग्रेजो के प्रति नफरत फैल गई और युगेश्वर ठाकुर के मन में भी अंगेजो के प्रति नफरत हो गई।

युगेश्वर ठाकुर अपने पास एक गुलेल रखते थे। स्कूल से लौटते समय अंग्रेजो को घोड़े से जाते देखने पर पीछे से गुलेल से मार कर भाग जाया करते थे। इसी क्रम में ये पकड़े गए और पूछने पर अपना नाम भुलर ठाकुर बता दिया।

उस दिन तो अंग्रेज ने छोटा बच्चा समझ कर डांट फटकार कर उन्हें छोड़ दिया, लेकिन ठाकुरजी कब मानने बाले थे। वे हमेशा छुप कर अंग्रेजो के रास्ते में घोड़ो को गिराने के लिये फंदा बिछा देते या गुलेल से मार कर भाग जाते।

जिससे अंग्रेजो ने पुलिस (Police) से शिकायत कर दी और पुलिस भुल्लर ठाकुर को खोजती हुई मानपुर गांव पहुँची। जिसके बाद से गांव के लोग युगेश्वर ठाकुर को भुल्लर ठाकुर के नाम से जानने लगे।

तब उत्तर बिहार का हजीपुर का गांधी आश्रम देश के क्रांतिकारी आंदोलन और स्वतन्त्रता आन्दोलन का केंद्र था। जिसका नेतृत्व किशोरी प्रसन्न सिंह, योगेंद्र शुक्ल कर रहे थे। इन्ही के एक साथी वासुदेव खलीफा लालगंज के घटारो के थे, जो गांव गांव घूम कर अंग्रेजो के खिलाफ प्रचार करते थे।

ये जिस गांव जाते अपना बिगुल बजाकर लोगों को इकठ्ठा कर अपना भाषण देते। वे मानपुरा जब आते तो बाबू नन्नू ठाकुर के यहां ठहरते।वाशुदेव खलीफा को भोजन करने की सामर्थ्य सभी में नही थी। वे एक बार में 5 किलो भैंस का दूध या 1 सेर चावल का भात या 40 रोटियां खाते थे। 6 फुट के वासुदेव ख़लीफ़ा के पास भैसा का बल था। कोई पहलवान इनके सामने नही टिकता था।

वासुदेव खलीफा के सम्पर्क में आने के बाद युगेश्वर ठाकुर का सम्पर्क जिले के क्रांतिकारी योगेंद्र शुक्ल, किशोरी प्रसन्न सिंह आदि से हुआ। अपने स्कूली जीवन में ही ठाकुरजी गोरौल के सोन्धो आश्रम चले आते थे। जहाँ फणीन्द्र घोष बम बनाने और हथियार चलाने का क्रांतिकारियों को ट्रेनिग देता था।

जब 1920 में हाजीपुर में गांधीजी का आगमन हुआ, तब ठाकुरजी घर बाले की रोक के बावजूद हजीपुर गांधी जी को देखने चले आये। इसके बाद ठाकुरजी ने अपने को देश की स्वतंत्रता के आंदोलन में समर्पित कर दिया।

ठाकुरजी ने सन 1930 में गांधीजी के सविनय अवज्ञा आंदोलन में जिले के स्वतन्त्रता सेनानियों के साथ हाजीपुर के गांधी आश्रम में भाग लिया। इस अवसर की एक यादगार तस्वीर ग़ांधी स्मारक पुस्तकालय हाजीपुर में अभी भी सुरक्षित है, जो जिले के स्वतन्त्रता सेनानियों की अमर गाथा है।

जब 1942 में गांधीजी के आह्वान पर अंग्रेजो भारत छोड़ो आंदोलन शुरु हुआ तब बाबू युगेश्वर ठाकुर को गोरौल की कमान दी गई। ठाकुरजी ने अपने साथियों के साथ गोरौल के पास रेल लाइन उखाड़ फेंका। सड़को को काट दिया, जिससे अंग्रेज इनसे काफी नाराज हो गए औऱ युगेश्वर ठाकुर को उनके साथियों के साथ गिरफ्तार कर पुलिस ने पटना के बांकीपुर कैम्प जेल में दाल दिया।

जहां अंग्रेजो ने इन्हें यातनाये दी। कहा जाता है कि घोड़े के पैर में इन्हें बांध कर घोड़े को दौरा दिया जाता था। तीन माह के बाद सभी आंदोलनकारियों के साथ ये भी जेल से बाहर आये। अपने गांव में एक स्कूल के साथ एक पुस्तकालय की स्थापना भी की। उनके द्वारा स्थापित स्कूल आज मानपुरा मध्यविद्यालय के नाम से जाना जाता है।

वर्ष 1947 में भारत के आजाद होने के बाद 1952 में प्रथम आम चुनाव हुआ। इस चुनाव में बाबू योगेंद्र शुक्ल लालगंज से चुनाव में खड़े हुए। योगेंद्र शुक्ल के लिये युगेश्वर ठाकुर पूरे क्षेत्र में घर घर घूमे, लेकिन मुकाबला साईं के बड़े जमींदार घराने के बाबू ललितेश्वर शाही से था, जो कांग्रेस से थे।

चुनाव के दिन शाहीजी के तरफ से सभी जगह वोटर के लिये पूरी जलेवी का इंतजाम था। लालगंज की जनता ने पूरी जलेवी पर शाहीजी को वोट देकर जीता दिया और योगेंद शुक्ल की हार हो गई।

इस घटना के बाद युगेश्वर ठाकुर ने अपने को राजनीति और कांग्रेस (Politics and Congress) से अलग कर लिया और अपने दोनों लड़को को भी राजनीति से दूर रखा। उनका एक लड़का सत्यदेव प्रसाद ठाकुर ने शिक्षक की नौकरी की, तो दुसरे लड़के योगेंद्र प्रसाद ठाकुर एलआईसी के मैनेजर हुये।

वर्ष 1971 में भारत सरकार द्वारा इन्हें स्वतन्त्रता सेनानी पेंशन दिया गया। जिस राशि को भी युगेश्वर बाबू समाज के काम मे खर्च कर देते थे। दिनांक 3 जनवरी 1984 को इस महान स्वतन्त्रता सेनानी का देहावसान हो गया।

युगेश्वर बाबू के पौत्र और कुछ युवा इनकी स्मृति को संजोये रखने का कार्य कर रहे हैं। इनकी जयन्ति और पूण्य तिथि पर संगोष्ठी के साथ गांव में वृक्षारोपण जैसी गतिविधियां भी होती है।

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