ईश्वर की भक्ति के बिना मनुष्य जीवन निरर्थक-कुशेश्वरजी

अवध किशोर शर्मा/सोनपुर (सारण)। भगवान के चरणों में अनुराग से सांसारिक दु:खों से निवृति होती है। शरीर नाशवान होते हुए भी उससे होने वाला किसी भी कार्य का नाश नही होता। वह अविनाशी है। यह शरीर नाशवान है, इसलिए कथा-सत्संग में श्रद्धा हो। हड्डी शरीर का आधार है। नस-नाड़ी रुपी रस्सी से इसे बांध दिया गया है।

मांस-मज्जा से लेप कर इसे मनुष्य शरीर का रुप स्वरुप दिया गया है।गाड़ दे तो कीड़ा लग जाए। जला दें तो राख बन जाए। फेंक दें तो पशु-पक्षी, मछली खा जाए। इसलिए इस नश्वर शरीर को भक्ति का खुराक जरुरी है। ईश्वर की भक्ति के बिना यह मनुष्य जीवन निष्फल है, निरर्थक है।

गंगा-गंडक संगम तीर्थ सारण जिला के हद में सबलपुर में श्रीधाम वृन्दावन स्थित रंगनाथ पीठ के रामानुज सम्प्रदायाचार्य जगद्गुरु महामंडलेश्वर स्वामी श्रीकृष्ण प्रपन्नाचार्य जी महाराज के मंगलानुशासन में संचालित नौ दिवसीय विराट महा विष्णु यज्ञ में प्रवचन करते हुए वैशाली के संत स्वामी कुशेश्वर जी महाराज ने उपरोक्त बातें कही।

उन्होंने कहा कि कुपथ पर चलने वाला का तेज समाप्त हो जाता है।कुमार्ग पर पैर रखने से व्यक्ति घबरा जाता है और हड़बड़ी या डर से ऐसा काम कर देता है, जो उसे नही करना चाहिए।
स्वामी कुशेश्वरजी महाराज ने महाभारत युद्ध के दौरान के एक प्रसंग का जिक्र करते हुए कहा कि दुर्योधन के मित्र द्रोण पुत्र अश्वत्थामा ने द्रोपदी के सोए हुए पुत्रों का सिर काट दिया।

बाल हत्या कर अश्वत्थामा भाग रहा था। अर्जुन को पीछे आते देख उसने डर से ब्रह्मास्त्र छोड़ दिया, जिसे वह वापस लेना तक नही जानता था। अर्जुन ने निरीह भाव से कृष्ण की ओर देखा। श्रीकृष्ण ने कहा कि अर्जुन तुम भी ब्रह्मास्त्र से प्रहार करो।

अर्जुन ने जवाब में ब्रह्मास्त्र का संधान किया।ब्रह्मास्त्रों के टकराव से प्रलय की स्थिति उत्पन्न हो गई। अब श्रीकृष्ण ने अर्जुन को दोनों ब्रह्मास्त्र लौटा लेने के लिए कहा, क्योंकि अर्जुन के पास ब्रह्मास्त्र लौटाने की भी शक्ति थी।अश्वत्थामा पकड़ लिया गया। पशु की तरह अश्वत्थामा को रस्सी से बांध दिया गया।

द्रोपदी के शिविर के पास लाया गया। गलत कार्य करने से अश्वत्थामा का सर झुका हुआ था।पुत्र शोक में डूबी द्रौपदी ने अपकार करनेवाला जानते हुए गुरूपुत्र अश्वत्थामा को प्रणाम किया और उस अवस्था में देख दु:खी हुई। द्रौपदी को ब्राह्मण पुत्र को इस तरह बांध कर लाना अच्छा नही लगा। गुरु पुत्र का वध उचित नही।

उन्होंने कहा कि अब सवाल था कि अश्वत्थामा को उसके कुकृत्य के लिए दंड का कौन सा विधान हो? भगवान ने अर्जुन से कहा कि पतित से पतित ब्राह्मण का भी वध नही करना चाहिए और आततायी का वध कर देना चाहिए। शास्त्रों में मैंने ही दोनों बातें कही है। ऐसा करो कि एक साथ दोनों बात सही हो जाए।

अपनी प्रिया द्रौपदी के सामने तुम जो बोले हो-वह सच हो जाए। जो सबको अच्छा लगे वह काम करो। भगवान का इशारा समझते ही अर्जुन ने भगवान की दोनों आज्ञाओं का पालन करते हुए अपने तलवार की नोक से अश्वत्थामा के मष्तिष्क से मणि निकाल ली।

क्योंकि शास्त्रों में अधम ब्राह्मणों की शरीर से हत्या का कोई विधान नही है। इसलिए भगवान की असीम कृपा से ब्राह्मण शरीर मिला है। इसलिए कभी भी इस शरीर से अधम कार्य नहीं करना चाहिए।

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