विश्व गणतंत्र की आदि जननी वैशाली को है अपने अतीत पर गुमान

अवध किशोर शर्मा/सोनपुर। सारणआज से ढ़ाई हजार वर्ष पूर्व जब संपूर्ण विश्व राजतंत्र की दरिंदगी एवं कबीलाई नृशंसता का दंश झेल रहा था, बिहार प्रदेश में लिच्छवियों द्वारा स्थापित वैशाली गणराज्य में लोकतंत्र की लौ जल रही थी।

इस गणराज्य की खूबी और खासियत का इसी से अंदाज लगाया जा सकता है कि इसकी सांगठनिक एकता इतनी प्रबल थी कि साम्राज्यवादी मंसूबे रखनेवाला मगध भी इस देश के रहिवासियों से सीधे मुकाबला करने से घबराता था।

बताया जाता है कि तब वैशाली की सीमाओं की रक्षा के लिए ऊंचे दुर्ग बनाए गए थे। जहां से दुश्मनों पर नजर रखी जाती थी। तंत्र के सभी गण एक हैं का उद्घोष वैशाली की धरती की ही देन है।

बज्जी संघ की राजधानी थी वैशाली। वज्जिकांचल महाजनपद की राजधानी वैशाली थी। इसी वैशाली के उपनगर कुंडग्राम में जैन तीर्थंकर महावीर का जन्म हुआ था।

विदेह राज्य टूटकर वज्जी संघ बना था। जो उस समय के 16 महाजन पदों में से एक था। जिसकी शासन व्यवस्था अष्टकुल के गणपतियों द्वारा संचालित होती थी, जिन्हें राजा की उपाधि मिली हुई थी।
इन अष्टकुलों में विदेह, लिच्छवि, ज्ञातृक, वृज्जि, उग्र, भोज, इक्ष्वाकु, और कौरव शामिल थे। विदेहों की राजधानी मिथिला, लिच्छवियों की वैशाली, ज्ञात्रिकों की कुण्डपुर और वज्जियों की कोल्लाग थी।

बताया गया कि वैशाली पूरे संघ की राजधानी थी। गणपतियों का निर्वाचन गणों के समूह द्वारा होता था। इससे पहले सार्वजनिक वाद-विवाद एवं बहस के द्वारा जनता गणों की लोकप्रियता को परखती थी। उनकी लोकप्रियता भी उनके गणपति बनने की एक बड़ी कसौटी थी।
लगभग यही प्रणाली आज अमेरिका सहित सभी लोकतांत्रिक देशों में प्रचलित है।

वैशाली नगर में थीं 7777 पुष्करिणियां

अंगुत्तर निकाय अट्ठ कथा के अनुसार वैशाली नगरी अति समृद्ध थी। वैभवशाली थी। इस नगरी में 7777 प्रासाद, 7777 कूटागार (कोठे), 7777 आराम (उद्यान) और 7777 पुष्करिणियां थीं। जबकि महावग्ग बताता है कि 7707 मंजिल वाले भवन,7707 गुम्बद वाले भवन, 7707 उद्यान तथा 7707 कमल के पोखर थे।

इनमें अभिषेक पुष्करिणी की ख्याति पूरे भारत के अंदर थी। इसमें स्नान के उपरांत ही निर्वाचित गणपतियों को राजा की उपाधि प्राप्त होती थी। इस वज्जी संघ का सर्वोच्च सेनाध्यक्ष सिंह सेनापति था।

जिसकी युद्ध व्यूह रचना ऐसी होती थी कि दुश्मनों का उससे बच निकलना मुश्किल ही नही नामुमकिन था। उत्तरप्रदेश सरकार द्वारा पुरस्कृत बौद्धकालीन ऐतिहासिक उपन्यास “वैशाली की नगरवधू” में आचार्य चतुरसेन ने भी अंगुत्तर निकाय अट्ठकथा की बातों की ही पुष्टि की है।

तब वज्जी संघ का शासन एक राज-परिषद करती थी, जिसका चुनाव हर सातवें वर्ष उसी अष्टकुल में से होता था। निर्वाचित सदस्य परिषद में एकत्र होकर वज्जी-चैत्यों, वज्जी- संस्थाओं और राज व्यवस्था का पालन करते थे। गणों की संस्था आज की संसद की तरह थी। वज्जी संघ की बैठक स्थल संस्थागार (संथागार) कहलाती थी जो आज के संसद भवन की तरह थी।

वज्जी संघ के सात निश्चय वैशाली गणराज्य का था। सुरक्षा कवच
जिन सात निश्चयों पर गणतंत्रवादी वज्जी संघ का अस्तित्व टिका हुआ था, उनमें सर्वसम्मति से निर्णय लेना।

खास यह कि संघ के सभी राजाओं की एक राय होने पर ही कोई नियम या निर्णय पारित किया जाता था। संघ के कानूनों का निष्ठापूर्वक पालन करना, वृद्धों का सम्मान करना।

पुरुष वर्ग द्वारा स्त्रियों पर अत्याचार नही करना, चैत्यों एवं देवालयों के प्रति सम्मान का भाव और उनको दी गई संपत्ति को छिनने का प्रयास नही करना, धर्माचार्यों (बोधिसत्वों, अरिहंतों, साधुओं की रक्षा व सम्मान करना, विदेशी पर्यटकों की सुरक्षा एवं सुख-सुविधा का खयाल रखना शामिल है।

दूसरी तरफ उस समय के शक्तिशाली महाजनपद मगध साम्राज्य को वैशाली की सांगठनिक एकता रास नही आ रही थी। वह अपने साम्राज्यवादी मंसूबे को पूरा करने के लिए छल-छद्म व ताकत के बल पर वैशाली के लोकतांत्रिक ढ़ांचे को तहस-नहस करने और उसे निगलने के लिए योजना पर काम कर रहा था।

छल-छद्म का शिकार बना वैशाली गणराज्य।

इसके लिए मगध के हर्यंक वंश का राजा अजातशत्रु ने वैशाली गणराज्य को समाप्त करने के लिए छल-छद्म एवं बल का सहारा लिया था।

द वर्ल्ड हिस्ट्री इनसाइक्लोपीडिया का कहना है कि अजातशत्रु ने वैशाली को अपने कब्जे में लेने का तरीका निकालने के लिए खुद बुद्ध से सलाह ली थी। वज्जी संघ एक मजबूत गणराज्य था। वैशाली नगर की सुरक्षा तीन परतों से की गई थी।जिस तरह से युद्ध को अंजाम दिया गया था,उसके सटीक तरीके अलग-अलग हैं।

बौद्ध वृत्तांत कहते हैं कि मगध राजा ने अपने मंत्री वर्षकार को वैशाली में भीतर से घुसपैठ करने के लिए भेजा था। इसके लिए मंत्री पर पहले राजद्रोह का आरोप लगाकर मगध से निर्वासित किया गया।

इसी आधार पर उसे वैशाली में पनाह मिली। उक्त मंत्री वज्जियों के बीच फूट डालने में सक्षम साबित हुआ।वैशाली पर मागधों का कब्जा हो गया। जिससे उसका लोकतांत्रिक गौरव छीन गया। घटती सामाजिक- आर्थिक स्थिति के परिणामस्वरूप एक दिन यह वैभवशाली नगर अप्रचलित हो गया।

ब्रिटिश काल में सबसे पहले मेजर जनरल एलेक्जेंडर कर्निंघम को इस अप्रचलित नगर ने अपनी ओर ध्यान खींचा था। बाद में हाजीपुर के अवर प्रमंडल पदाधिकारी रहे जगदीश चंद्र माथुर ने तो वैशाली को देश और दुनिया के सामने उजागर करके रख दिया।

एक नए पुरातत्व अध्ययन ने सुझाव दिया कि यहां आयी एक बड़ी बाढ़ ने वैशाली और ऐसी कई प्राचीन बस्तियों को बिहार और उत्तर प्रदेश में मिटा दिया था। समय के साथ, इस बारे में बहुत बहस हुई कि कैसे भारत को यूनानियों की तरह दुनिया के सबसे पुराने गणराज्यों की विश्वव्यापी चर्चाओं से बाहर रखा गया है।

वैशाली गणतंत्र की जब मोदी ने की प्रशंसा

भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने पिछले वर्ष 12 जुलाई को पटना में कहा था कि जब दुनिया लोकतंत्र समझ रही थी, तब वैशाली गणराज्य चरम पर था। उन्होंने कहा कि भारत में लोकतंत्र की अवधारणा उतनी ही प्राचीन है जितनी कि यह देश और हमारी सभ्यता।

जब दुनिया के बड़े क्षेत्र सभ्यता और संस्कृति की ओर अपना पहला कदम उठा रहे थे। वैशाली में एक परिष्कृत लोकतंत्र था। जब दुनिया के अन्य क्षेत्रों ने लोकतांत्रिक अधिकारों को समझना शुरु ही किया था। लिच्छवी जैसे गणराज्य अपने चरम पर थे।

वैशाली के खंडहरों में छुपा है लोकतंत्र का स्वर्णिम इतिहास।
गणतंत्रकालीन वैशाली के खंडहरों में छुपा हुआ है लोकतंत्र का स्वर्णिम इतिहास। इसी कोल्हुआ में पांचवी शताब्दी का बना भगवान बुद्ध का “अस्थि अवशेष स्तूप” देशी-विदेशी बौद्ध पर्यटकों के लिए पूजनीय और पवित्र स्थल है। यह मिट्टी का बना हुआ है।

भगवान बुद्ध के पार्थिव अवशेषों पर बने आठ स्तूपों में यह एक है। सम्राट अशोक ने इसका जीर्णोद्धार कराया था जिससे यह पहले से बड़ा लगने लगा। बुद्ध के महापरिनिर्वाण के बाद उनके अवशेषों को आठ भागों में विभक्त किया गया था, जिसमें से एक भाग वैशाली के लिच्छवियों को भी मिला था।

अब बुद्ध के अस्थि-अवशेषों को यहां से ले कर पटना के संग्रहालय में रखा गया है। पूर्व केंद्रीय मंत्री स्व. रघुवंश प्रसाद सिंह इन अस्थि- अवशेषों को वैशाली लाने के लिए आवाज बुलंद कर चुके हैं। पर उन्हें सफलता नही मिली।

कोल्हुआ में ही अशोक स्तंभ के बगल में ईंट का बना एक विशाल आनंद स्तूप भी है। यह आनंद स्तूप काफी भव्य और विशाल है। महात्मा बुद्ध के परम प्रिय शिष्य आनंद की समाधि पर यह बना हुआ हैं। अशोक ने इस स्तूप को और बड़ा बनवाया था। पुरातत्व सर्वेक्षण इसकी देखरेख करता है।

बुद्ध ने इसी वैशाली में कई वर्षाऋतु बिताए थे। कुशीनगर में महापरिनिर्वाण की घोषणा उन्होंने वैशाली में ही की थी। वैशाली के ही कोल्हुआ में बुद्ध ने अपना अंतिम उपदेश दिया था, जिनकी याद में सम्राट अशोक ने यहां अशोक स्तंभ बनवाया। अब यह पूरा परिसर भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण के अधीन है।

इस स्थल के आसपास कई अन्य पुरातात्विक स्थल हैं। वैशाली में कोल्हुआ स्थित अशोक स्तंभ इन सभी स्तंभों से अलग है। 18.3 मीटर ऊंचे इस अशोक स्तंभ के ऊपर एक शेर की आकृति बनी है। स्थानीय रहिवासी पहले इसे अशोक का लाट बोलते थे। यह अशोक स्तंभ बलुआ पत्थर का बना एक गोलाकार लम्बा स्तंभ है।

इसके ऊपर जहां शेर की आकृति बनी हुई है उसके ठीक नीचे प्रलंबित दलोंवाला उलटा कमल बना हुआ है। शेर का मुंह उत्तर दिशा की ओर है। जो बुद्ध की अंतिम यात्रा करने की दिशा का प्रतीक है।

गणतांत्रिक वैशाली के बारे में माना जाता है कि भगवान बुद्ध यहां कई बार आए। उन्होंने यहां कई वर्षाऋतु बिताए थे। उन्होंने वैशाली में ही अपने कुशीनगर में महापरिनिर्वाण होने की पूर्व घोषणा की थी। वैशाली में ही उन्होंने अपना अंतिम उपदेश दिया था। उसी के याद में सम्राट अशोक ने यहां अशोक स्तंभ बनवाया था।

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