एस. पी. सक्सेना/पटना (बिहार)। बिहार की राजधानी पटना के प्रेमचंद रंगशाला में 4 सितंबर को प्रयोगशाला नवादा की प्रस्तुति नाटक नदी का तीसरा किनारा नाटक का मंचन किया गया। उक्त जानकारी कलाकार साझा संघ के सचिव व् चर्चित टीवी कलाकार मनीष महीवाल ने दी।
महीवाल ने बताया कि उक्त नाटक को वर्ष 1962 में जोआओ गुइमारेस रोजा द्वारा द थर्ड बैंक ऑफ द रिवर शीर्षक के नाम से लिखा गया था। नदी का तीसरा किनारा उक्त नाटक का हिंदी रूपान्तरण है।
उन्होंने बताया कि जोआओ गुइमारेस रोजा को आम तौर पर आधुनिक ब्राजीलियाई कथा साहित्य के विकास में सबसे महत्वपूर्ण लेखक माना जाता है।
वे बीसवीं सदी के शुरुआती भाग की यथार्थवादी क्षेत्रवादी परंपरा से आधुनिक जादुई यथार्थवाद की ओर संक्रमण का संकेत देते हैं, जिसमें जॉर्ज लुइस बोर्गेस और गेब्रियल गार्सिया मार्केज जैसे प्रसिद्ध लैटिन अमेरिकी लेखकों के काम की विशेषता है।
नदी का तीसरा किनारा गुइमारेस रोजा की सबसे प्रसिद्ध कहानियों में से एक है। हालाँकि कहानी वास्तविक जगह पर आधारित है और इसमें यथार्थवादी पात्र है। कहानी की केंद्रीय घटना इसे अत्यधिक काल्पनिक बनाती है। यह कहानी एक बेटे द्वारा एक पिता को समझने के प्रयासों पर केंद्रित है, जो बिना किसी स्पष्टीकरण के एक छोटी सी नाव में अपने घर के पास नदी में चला जाता है।
वहां एक ही स्थान पर टेढ़े-मेढ़े होकर अपना जीवन व्यतीत करता है। पिता इतना विशिष्ट व्यक्ति नहीं है जितना वह उस भूमिका का प्रतीक है जो वह निभाता है, जो जादुई यथार्थवाद की परंपराओं के लिए विशिष्ट है। चूँकि हम उसके बारे में केवल इतना जानते हैं कि वह एक पिता है। नदी पर उसकी यात्रा इस तथ्य के साथ कि कहानी का केंद्रीय फोकस घटना पर बेटे की प्रतिक्रिया है, केवल उसकी पैतृक स्थिति से ही समझाया जा सकता है।
पिता के व्यवहार के लिए कोई यथार्थवादी प्रेरणा नहीं है। न ही इसे पिता द्वारा अपने परिवार के प्रति अपनी सामाजिक जिम्मेदारी को त्यागने के दृष्टांत के रूप में समझाया जा सकता है। इसके बजाय इसे एक सार्वभौमिक आध्यात्मिक कार्य के अवतार के रूप में देखा जाना चाहिए।
आलोचक एलन एंगलकिर्क ने पिता को एक सीमांत चरित्र के रूप में वर्णित किया है, जिसकी सच्चाई और वास्तविकता को आम तौर पर जिस तरह से परिभाषित किया जाता है। उससे अलग परिभाषित करने के लिए उसकी स्पष्ट रूप से तर्कहीन कार्रवाई उसे एक वीर व्यक्ति के रूप में अलग करती है।
जेम्स वी. रोमानों ने कहा है कि कहानी में सबसे बुनियादी विरोधाभास आध्यात्मिक जीवन के अतिक्रमण के बीच है। जैसा कि पिता द्वारा दर्शाया गया और बेटे द्वारा सुझाई गई आध्यात्मिक मृत्यु के गैर-पारगमन के बीच है। इस तरह की कहानी में, पात्र यथार्थवादी या मनोवैज्ञानिक प्रेरणा के कारण कार्य नहीं करते हैं, बल्कि अंतर्निहित विषय और संरचना की मांग के कारण वे ऐसा करते हैं।
जब तक पाठक कहानी की काल्पनिक प्रकृति और उसके विषय की आध्यात्मिक प्रकृति को नहीं पहचानते, तब तक वे पिता के कृत्य को पागलपन कहकर खारिज करने के लिए प्रलोभित हो सकते हैं। हालांकि, जैसा कि बेटा कहता है, उसके घर में पागल शब्द कभी नहीं बोला जाता, क्योंकि कोई भी पागल नहीं है या शायद हर कोई पागल है।
महिवाल के अनुसार प्रस्तुत नाटक के प्रमुख किरदार की भूमिका को रंगकर्मी रवि कुमार ने बेहतरीन ढंग से निभाया है। मंच से परे प्रकाश परिकल्पना विनय चौहान, संगीत संयोजन गोविन्द कुमार, वस्त्र-विन्यास पिंकी सिंह, मंच-परिकल्पना गुलशन कुमार, मंच सामग्री धनराज, प्रचार-प्रसार बबलू गांधी, प्रस्तुति नियंत्रक गुलशन कुमार, प्रेक्षागृह व्यवस्था गुलशन, बबलू, आदि।
शंभू, मूगांक कुमार, मंच उद्घोषणा समीर चन्द्रा, प्रस्तुति सहायक समीर चन्द्रा, सहायक निर्देशक पंकज करपटने, अभ्यर्थना स्वयं मनीष महिवाल, बुल्लू कुमार, अंजारूल हक, शंभू कुमार, आभार थिएटर यूनिट अक्षरा आर्ट लोक पंच, क्रिएटिव आर्ट थियेटर, रंग रूप नीरज जी (हनुमान केयर) प्रशांत कॉमर्स इन्साईट्स, डॉ किशोर सिंह, कृष्ण कुमार, शरद हिमांशु, सुधीर, अभिषेक चौहान, रोशन कुमार, विक्रांत चौहान तथा निदेशक एवं परिकल्पना राजीव रंजन श्रीवास्तव के है।
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