वृन्दावन की जीवंत झांकी राजसी वैभव समेत अपने विस्तृत चहारदीवारी के बीच सहेज कर रखा ऐतिहासिक हथुआ गोपाल मंदिर आज भी दर्शनीय आभा बिखेर रहा है। हथुआ राज (Hathwa Raj) परिवार द्वारा सन 1832 ई. में बनवाया गया यह मंदिर राजक्षेत्र में कृष्ण (गोपाल) उपासना का प्रमाण है। संभवतः जिले का नाम ”गोपालगंज” इसी गोपाल (कृष्ण) पूजन के कारण ही रखा गया। क्षेत्र के बड़े बुजुर्ग बताते हैं कि यहां संध्या के वक़्त राधा- कृष्ण आरती मुरली की मधुर तान तथा रासलीला के दक्ष कलाकारों के जीवंत नृत्य के साथ होता था।
हथुआ पुरानी किला के चारो ओर यमुना नामक गहरा पोश्वर, बांसुरी तथा मुरली बनाने वाले सिद्धहस्त के सैकड़ो परिवार, गोपाल मंदिर परिसर का वैभवमयी तालाब की जल तरंग को स्पर्श करता कदम्ब का पेड़, जो कि वृन्दावन से लाकर लगाया गया था… ! शायद… राज-परिवार ने हथुआ को वृन्दावन का माडल बनाने का प्रयास कृष्ण भक्ति के कारण किया था। गोपाल मंदिर (Gopal Temple) परिसर में ब्रिटेन से लाकर स्थापित किया गया अनमोल मत्सय जलफव्वारा, हीरे जावाहरातयुवत झालर, सोने- चांदी के पतले धागे से निर्मित कालीन भीतचित्र तथा मंदिर के गुम्बजों पर लगे 108 स्वर्ण कलश आज भी आगंतुकों एवं पर्यटकों को नयनाभराम स्थिति में खड़ा कर देता है। लगभग चालीस फीट ऊंचा भव्य मुख्य द्वार के सामने पिंजरे में बंद संगमरमर के दो विशालकाय शेर जीवंत लगते हैं।
गोपाल मंदिर परिसर के आस पास दर्जनों तालाबों का जलस्तर समान रखने के लिए एक दूसरे से जुड़ी सुरंगे हैं जिनके अवशेष आज भी देखने को मिलते है। इसके अलावा मंदिर के दक्षिण तथा पश्चिम में कुल पांच हवेलियां है। जिनमें महारानी स्वयं निवास करके पूजन कार्य करती थीं। गोपाल मंदिर के सामने एवं परिसर के अंदर बना भव्य तालाब के पूरब तथा पश्चिम किनारे पर लाल पत्थर का बना महिला स्नान गृह, तालाब का स्वच्छ नीला जल वाकई देखने लायक है।
मंदिर परिसर के अंदर सन् 1980 ई. में स्थापित छत्रधारी संस्कृत महाविद्यालय के संदर्भ में बताया जाता है कि इसमें पहले गुरुकुल की शिक्षा दी जाती थी। आज भी श्रीकृष्ण जन्माष्ठमी के अवसर पर गोपाल मंदिर से श्रीकृष्ण की झांकियां निकाली जाती है तथा सांस्कृतिक कार्यक्रम, सोहर गान आदि होता है। जिसमें हथुआ राज (Hathwa Raj) परिवार के वंशज महाराजा बहादुर मृगेंद्र प्रताप शाही (Maharaja Bahadur Mrigendra Pratap Sahi), महारानी पूनम शाही (Punam Sahi), राजकुमार कौष्भुमणी प्रताप शाही अपने राजश्री लिबास में शिरकत करते हैं। कुछ वर्ष पूर्व जिले का ऐतिहासिक धरोहर, गोपाल मंदिर अपना अस्तित्व खोने के कगार पर था लेकिन हथुआ राज परिवार की जागरुकता ने इसे बचा लिया।
राजा के निजी खर्च पर गोपाल मंदिर की मरम्मति रंग रोगन तथा बागवानी से पुनः इसकी रौनक लौट आई है। इस मंदिर से जुड़े हथुआ गांव के बांसुरी- मुरली बनाने वाले कारीगरों का कहना है कि उनके पूर्वज इस मंदिर की संध्या आरती के लिये अनोखे मुरली बनाते थे उसे अन्य राजा तथा जमींदार मुंह मांगे कीमतों पर खरीदकर अपने पूजा घर की न केवल शोभा बढ़ाते थे, बल्कि मुरली को रखना अपना सौभाग्य समझते थे। उसी प्रसिद्धि का परिणाम है कि आज भी हथुआ का निर्मित बांसुरियां तथा मुरली की मांग कश्मीर से कन्याकुमारी के अलावा विदेशों में भी बढ़ती गई। यहां की मुरली के बड़े खरीददारों में सिंगापुर, इण्डोनेशिया और चीन है, इन देशों में भी मुरली के शौकीन हैं।
- इस कड़ी में दिलचस्प बात यह है कि 21वीं सदी की युवा पीढ़ी देश के इतिहास व प्रचीन परंपराओं को खंगालने के लिए कभी गूगल का सहारा लेती है तो कोई प्रत्यक्ष रूप से वियाबानों की खाक छानती फिर रही है। ऐसे में इतिहास के जानकारों व सारण (छपरा) जिला के बुढ़े बुजूर्गो की जुबानी हथुआ महाराज व उनके राजवाड़े की कहानी सामने आई है। पाटलीपुत्र के नाम से प्रसिद्ध बिहार की राजधानी पटना से करीब 160 कीलोमिटर की दूरी पर स्थित हथुआ स्टेट उन दिनों भी सारी सुविधाओं से लैस था। फिलहाल कहने को कुछ भी नहीं लेकिन उत्तरी भारत के पश्चिमी छोर पर हथुआ ही एक ऐसी जगह है, जो 1832 में भी आधुनिक व अनोखे शहरों में गिना जाता था। पर्यटको को लुभाने वाली यहां की झांकियां आप के कई सवालों का प्रत्यक्ष जवाब है। इन सब के बावजूद सरकारी बेरूखी का शिकार हथुआ के इतिहास को दफनाने की कोशिश की जा रही है। बता दें कि नीतीश कुमार की सरकार से पहले लालू सरकार ने आपने कार्यकाल के दौरान हथुआ के इतिहास को सराकरी फाइलों में जकड़ दिया, जो अब दफ्तरों की धूल चाट रही हैं। काश हथुआ को पर्यटन स्थल का दर्जा दिया गया होता तो सरकारी खजाने को बल मिलता।
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