मुश्ताक खान/ मुंबई। सिखों के पांचवें गुरू श्री अर्जुन देव जी की शहादत दिवस मुंबई सहित देश के कोने – कोने में मनाया गया। उनकी शहादत दिवस पर वाशीनाका के खालसा पंजाब होटल द्वारा आम व खास लोगों में शरबत पिलाई गई साथ ही पकवानों का वितरण भी किया गया। इसी तरह चेंबूर के लक्ष्मी कालोनी स्थित गुरूद्वारा गुरूनानक दरबार की ओर से भी भव्य कार्यक्रम किया गया। खालसा पंजाब द्वारा यह सिलसिला पिछले 22 सालों से किया जा रहा है, जबकि गुरूद्वारा कमेटी की ओर से शरबत पिलाने व लोगों में खाने बांटने का सिलसिला पिछले 54 वर्षों से चल रहा है।
सिखों के पांचवें गुरु श्री अर्जुन देव जी से जुड़ी कुछ बातें
श्री गुरु अर्जुन देव जी को शहीदों का सरताज कहा जाता है। आप शांति के दूत व मानवता के सच्चे पुजारी व धर्म के रक्षक, शांत और गंभीर स्वभाव के स्वामी थे। उन्हें युग के सर्वमान्य लोकनायक भी कहा जाता है। उनके जन कल्याणकारी कार्य अपने आप में मिसाल हैं। वह दिन-रात संगत की सेवा में लगे रहते थे। उनके मन में सभी धर्मों के प्रति अथाह स्नेह था। सिख धर्म के पहले शहीद श्री गुरु अर्जुन देव जी थे।
उस वक्त के हुक्मरानों को सिख धर्म का दिनों-दिन बढ़ना रास नहीं आ रहा था। इसी ईर्ष्या के कारण बिना किसी दोष गुरु जी को शहीद कर दिया गया। आप के बाद गुरु हरगोबिंद साहिब ने शांति के साथ-साथ हथियारबंद सेना तैयार करना बेहतर समझा तथा मीरी-पीरी का संकल्प देते हुए श्री अकाल तख्त साहिब की रचना की।
श्री गुरु अर्जुन देव जी का जन्म श्री गुरु रामदास जी के गृह में माता भानी जी की कोख से वैशाख बदी 7 सम्वत् 1620 मुताबिक 15 अप्रैल 1563 ई को गोइंदवाल साहिब में हुआ। इनका पालन-पोषण गुरु अमरदास जी जैसे गुरु तथा बाबा बुडढा जी जैसे महापुरुषों की देख-रेख में हुआ।
इन्होंने गुरु अमरदास जी से गुरमुखी की शिक्षा हासिल की। गोइंदवाल साहिब जी की धर्मशाला से आपने देवनागरी, पंडित बेणी से संस्कृत तथा अपने मामा मोहरी जी से गणित विद्या हासिल की। आपके मामा मोहन जी ने आप को ध्यान लगाने की विधि भी सिखाई।
यह बचपन से ही बहुत शांत स्वभाव तथा पूजा भक्ति करने वाले थे। जब आप छोटे थे उसी समय गुरु अमरदास जी ने भविष्यवाणी की थी कि यह बालक बहुत बाणी की रचना करेगा। गुरु जी ने कहा था दोहिता बाणी का बोहिथा। आप जी ने बचपन के साढ़े 11 वर्ष गोइंदवाल साहिब में ही बिताए तथा उसके बाद गुरु रामदास जी अपने परिवार को अमृतसर साहिब ले आए। इनकी शादी 16 वर्ष की आयु में जिला जालंधर के गांव मौ साहिब में कृष्ण चंद की पुत्री माता गंगा जी के साथ हुई।
गुरु रामदास जी के तीन सुपुत्र बाबा महादेव, बाबा पृथी चंद तथा गुरु अर्जुन देव थे। गुरु रामदास ने हर तरह की जांच पड़ताल करने के बाद एक सितम्बर 1581 ई. को जब गुरु अर्जुन देव जी को गुरु गद्दी सौंप दी तो पृथी चंद नाराज हो गया। गुरु गद्दी संभालने के बाद गुरु अर्जुन देव जी ने लोक भलाई तथा धर्म प्रचार के कामों में तेजी लाई।
आप ने गुरु रामदास जी द्वारा शुरू किए गए सांझे निर्माण कार्यों को प्राथमिकता दी। संतोखसर तथा अमृतसर के विकास कार्यों को और भी तेज कर दिया। अमृत सरोवर के बीच आप ने हरिमंदिर साहिब का निर्माण कराया, जिसका शिलान्यास 3 जनवरी 1588 को मुसलमान फकीर साई मियां मीर से करवाया और धर्म निरपेक्षता का सबूत दिया।
आप ने नए नगर तरनतारन साहिब, करतारपुर साहिब (निकट जालंधर), छहर्टा साहिब, श्री हरगोबिंदपुर आदि बसाए। हरिमंदिर साहिब के चार दरवाजे इस बात के प्रतीक हैं कि हरिमंदिर साहिब हर धर्म-जाति वालों के लिए खुला हुआ है। उपदेश चहुं वरना को सांझा। तरनतारन साहिब में एक विशाल सरोवर का निर्माण कराया जिसके एक तरफ तो गुरुद्वारा साहिब और दूसरी तरफ कुष्ठ रोगियों के लिए एक दवाखाना बनवाया। यह दवाखाना आज तक सुचारू रूप से चल रहा है। गांव-गांव में कुंओ का निर्माण कराया। सुखमणि साहिब की भी रचना की।
संपादन कला के गुणी गुरु अर्जुन देव ने श्री गुरु ग्रंथ साहिब का संपादन भाई गुरदास की सहायता से किया। उन्होंने रागों के आधार पर श्री गुरु ग्रंथ साहिब में संकलित वाणियों का जो वर्गीकरण किया है, उसकी मिसाल मध्यकालीन धार्मिक ग्रंथों में दुर्लभ है। यह उनकी सूझबूझ का ही प्रमाण है कि श्री ग्रंथ साहिब में 36 महान वाणीकारों की वाणियां बिना किसी भेदभाव के संकलित हुर्ईं।
श्री गुरु ग्रंथ साहिब के कुल 5894 शब्द हैं, जिनमें 2216 शब्द श्री गुरु अर्जुन देव जी महाराज के हैं और 15 हिन्दू तथा मुसलमान संतों भक्त कबीर तथा बाबा फरीद , हिन्दू संतों भवत नामदेव , भक्त रविदास जी, भक्त धन्न जी, भक्त पीपा जी, भक्त सैन जी, भक्त भीखन जी, भक्त परमांनद जी, भक्त रामानंद जी आदि के अलावा सत्ता, बलवंड, बाबा सुंदर जी तथा भाई मरदाना जी व 11 भाटों की बाणी दर्ज है।
पवित्र बीड़ रचने का कार्य सम्वत् 1660 में शुरू हुआ तथा 1661 सम्वत को यह कार्य संपूर्ण हो गया। श्री गुरु ग्रंथ साहिब का प्रथम प्रकाश श्री हरिमंदिर साहिब में भाद्रपद सुदी एक सम्वत 1661 को किया गया, जिनके मुख्य ग्रंथी की जिम्मेवारी बाबा बुडढ़ जी को सौंपी गई।
गुरु जी के प्रचार के कारण सिख धर्म तेजी से फैलने लगा। जब जहांगीर बादशाह बना तो पृथी चंद ने उसके साथ नजदीकियां बढ़ानी शुरू कर दीं। जहांगीर गुरु जी की बढ़ती लोकप्रियता को पसंद नहीं करता था। उसे यह बात बिलकुल पसंद नहीं आई कि गुरु अर्जुन देव ने उसके भाई खुसरो की मदद क्यों की थी। जहांगीर अपनी जीवनी के तुजके जहांगीरा में स्वयं भी यह लिखता है कि वह गुरु अर्जुन देव जी की बढ़ रही लोकप्रियता से आहत था, इसलिए उसने गुरु को शहीद करने का फैसला कर लिया।
गुरु अर्जुन देव को लाहौर में 30 मई 1606 ई. को भीषण गर्मी के दौरान यासा व सियासत कानून के तहत लोहे की गर्म तवी पर बिठाकर शहीद कर दिया गया। यासा व सियासत के अनुसार किसी व्यक्ति का रक्त धरती पर गिराए बिना उसे यातनाएं देकर शहीद किया जाता है। गुरु जी के शीश पर गर्म-गर्म रेत डाली गई।
जब गुरु जी का शरीर अग्नि के कारण बुरी तरह से जल गया तो आप जी को ठंडे पानी वाले रावी दरिया में नहाने के लिए भेजा गया, जहां गुरु जी का पावन शरीर रावी में आलोप हो गया। जहां आप ज्योति ज्योत समाए उसी स्थान पर लाहौर में रावी नदी के किनारे गुरुद्वारा डेरा साहिब (जो अब पाकिस्तान में है) का निर्माण किया गया है। गुरु अर्जुन देव ने लोगों को विनम्र रहने का संदेश दिया। आप विनम्रता के पुजारी थे। कभी भी आपने किसी को भी दुर्वचन नहीं बोले।
गुरु अर्जुन देव का संगत को एक और बड़ा संदेश था कि परमेश्वर की रजा में राजी रहना। उमदातुत तवारीख का लिखारी लिखता है कि गुरु जी की शहादत को लिखते हुए कलम लहू के आंसू बहाती है, आंखें रोती हैं, दिल फटता है और जान हैरान होती है। जब आपको जहांगीर के आदेश पर आग के समान तप रही तवी पर बिठा दिया, उस समय भी आप परमेश्वर का शुक्राना कर रहे थे।
तेरा कीया मीठा लागै॥
हरि नामु पदार्थ नानक मांगै॥
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