झारखंड : सब कुछ है फिर भी है कंगाल

झारखंड की खट्टी मीठी यादें

मुश्ताक खान
प्राकृतिक संपदाओं से परिपूर्ण झारखंड राज्य को कई नामों से जाना जाता है। जर्मनी में इसे खनिज प्रदेश के नाम से लोग जानते हैं, जबकि मुगलों के दौर में इसे कुकरा प्रदेश कहा जाता था। वहीं इसे वनांचल आंदोलन के नाम से भी जाना जाता है। दरअसल झारखंड का इतिहास अपने नाम के अनुकूल है। झारखंड यानी ‘झार’ और ‘खंड’ यानी दो टुकड़ों को मिलाकर बने इस प्रादेश का नाम झारखंड है। अपने नाम के अनुरुप यह मूलतः एक वन प्रदेश है जो झारखंड आंदोलन के रूप में जाना जाता है। झारखंड की स्थापना 15 नवंबर 2000 में हुई थी। यहां प्रचूर मात्रा में खनिज की उपलब्धता के कारण इसे भारत का ‘रूर’ भी कहा जाता है।

झारखंड की सीमाएं उत्तर में बिहार, पश्चिम में उत्तर प्रदेश एवं छत्तीसगढ़, दक्षिण में ओड़िशा और पूर्व में पश्चिम बंगाल को छूती हैं। लगभग संपूर्ण प्रदेश छोटानागपुर के पठार पर अवस्थित है। यहां की प्रमुख नदियों में दामोदर, कोनार, खड़खड़ी, धड़मा और सुवर्ण रेखा हैं। इसके अलावा कोयल, लोहा, अबरक, बोकसाइड, मेग्नेटाइट आदि यहां प्रचूर मात्रा में उपलब्ध है। इस लिहाज से भारत में वनों के अनुपात में झारखंड एक अग्रणी राज्य माना जाता है तथा वन्य जीवों के संरक्षण के लिये मशहूर है। यहां विभिन्न भाषाओं, सांस्कृतिक एवं धर्मों का संगम भी है।

कुकरा प्रदेश कैसे बना- झारखंड
झारखंड राज्य की मांग का इतिहास लगभग सौ साल से भी पुराना है, सन 1900 के आस-पास भारतीय हाकी खिलाड़ी जयपाल सिंह थे। उन्होंने ओलंपिक खेलों में भारतीय हाकी टीम की कप्तान व नेतृत्व किया था। उन्होंने पहली बार तत्कालीन बिहार के दक्षिणी जिलों को मिलाकर झारखंड राज्य बनाने का विचार रखा था। लेकिन यह विचार 2 अगस्त सन 2000 में साकार हुआ, जब संसद ने इस संबंध में एक अध्यादेश पारित किया और उसी साल 15 नवंबर को झारखंड राज्य ने मूर्त रूप ले लिया। इस तरह भारत के 28वें राज्य के रूप में झारखंड प्रतिष्टापित हुआ।

इतिहासकारों की माने तो झारखंड की विशिष्ठ भू-स्थैतिक संरचना, अलग सांस्कृतिक पहचान इत्यादि को मगध साम्राज्य से पहले भी एक अलग इकाई के रूप में चिन्हित किया जाता रहा। बताया जाता है कि तेरहवीं सदी में उड़ीसा के राजा जयसिंह देव को इस प्रदेश के लोग अपना राजा मानते थे। झारखंड के प्रारंभिक इतिहास में इस राजवंश की काफी प्रभावशाली भूमिका रही है। इससे पहले यहां कबिलाई सरदारों का बोलबाला था। लेकिन काफी क्षेत्रों में निरंकुशता एवं उनकी मनमानी की वजह से लोगों ने यहां से बाहर के राजवाड़ों से मदद की अपील की जिन्हें उस समय न्यायिक दृष्ठि से काफी हद तक निष्पक्ष माना जाता था। इस तरह पहली बार इस क्षेत्र में बाहरी लोगों का हस्तक्षेप शुरु हुआ। जब उड़ीसा एवं अन्य क्षेत्रों के राजाओं ने अपनी सेना के साथ यहां दखल देना शुरु किया।

कुछ अच्छे कबिलाई सरदार जिनका काम अच्छा था एवं जिनकी प्रजा से अच्छा संबंध थे, उनका प्रभाव इस क्षेत्र में काफी लंबे समय तक कायम रहा, जिनमें मुख्य रुप से मुंडा सरदार थे, उनका प्रभाव आज भी बहुत से इलाकों में है।

बता दें कि 72 वर्षों पहले अंग्रेजों के दौर में आदिवासी महासभा ने जयपाल सिंह मुंडा की अगुआई में अलग झारखंड का सपना देखा था। लेकिन वर्ष 2000 में केंद्र सरकार ने 15 नवंबर को आदिवासी नायक बिरसा मुंडा के जन्मदिन के अवसर पर झारखंड को भारत का 28वां राज्य बना दिया। बिहार के दक्षिणी हिस्से को विभाजित कर झारखंड प्रदेश का सृजन किया गया था। औद्योगिक नगरी राँची इसकी राजधानी है। इस प्रदेश के अन्य बड़े शहरों में धनबाद, बोकारो और जमशेदपुर आदि शामिल हैं।

मुंडा मानकी प्रथा
मुगल सल्तनत के दौरान झारखंड को कुकरा प्रदेश के नाम से जाना जाता था। 1765 के बाद यह अंग्रेजों के अधीन हो गया। ब्रिटिश दासता के अधीन यहाँ काफी अत्याचार हुए और अन्य प्रदेशों से आने वाले लोगों का काफी दबदबा हो गया था। इस कालखंड में प्रदेश में ब्रिटिशों के खिलाफ बहुत से विद्रोह हुए जिसे आदिवासी विद्रोहों के नाम से सामूहिक जाना जाता है, इनमें से कुछ प्रमुख विद्रोह थेः-
1772 -1780 पहाड़िया विद्रोह
1780 -1785 तिलका मांझी के नेतृत्व में मांझी विद्रोह जिसमें भागलपुर में 1785 में तिलका मांझी को फांसी दी गयी थी।
1795 -1800 तमाड़ विद्रोह
1795 -1800 मुंडा विद्रोह विष्णु मानकी के नेतृत्व में
1800 -1802 मुंडा विद्रोह तमाड़ के दुखन मानकी के नेतृत्व में
1819 -1820 मुंडा विद्रोह पलामू के भूकन सिंह के नेतृत्व में
1832 -1833 खेवर विद्रोह भागीरथ, दुबाई गोसाई, एवं पटेल सिंह के नेतृत्व में
1833 -1834 भूमिज विद्रोह वीरभूमी के गंगा नारायण के नेतृत्व में
1855 लार्ड कार्नवालिस के खिलाफ सांथालों का विद्रोह
1855 -1860 सिद्धू कान्हू के नेतृत्व में सांथालों का विद्रोह
1856 -1857 शहीदलाल, विश्वनाथ सहदेव, शेख भिखारी,
गनपतराय एवं बुधु बीर का सिपाही विद्रोह के दौरान आंदोलन
1874 खेरवार आंदोलन भागीरथ मांझी के नेतृत्व में
1880 खड़िया विद्रोह तेलंगा खड़िया के नेतृत्व में
1895 -1900 बिरसा मुंडा के नेतृत्व में मुंडा विद्रोह
इन सभी विद्रोहों को भारतीय ब्रिटिश सेना द्वारा निष्फल कर दिया गया। इसके बाद 1914 में ताना भगत के नेतृत्व में लगभग छब्बीस हजार आदिवासियों ने फिर से ब्रिटिश सत्ता के खिलाफ विद्रोह किया था जो बाद में महात्मा गांधी के सविनय अवज्ञा आंदोलन का हिस्सा बन गया। हालांकि इस राह पर चल पड़े वीरों ने अपनी आहूती देकर इस राज्य का निर्माण कराया, इसे भुलना नहीं चाहिए।

 


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