एस.पी.सक्सेना/ बोकारो। धर्म या मजहब धारण करने के लिए होता है। मार्ग कोई भी हो वह इन्सान को इंसानियत की सिख देता है। इसे कुछ मुट्ठीभर लोग अपने लाभ के लिए जब बेजा इस्तेमाल करने लगते हैं तब यह धर्म या मजहब नहीं पाखंड में परिणत हो जाता है।
इन्ही विषयों को लेकर और खासतौर पर इस्लाम धर्मावलंबी मान्यताओं को लेकर झारखंड के प्रखर राजनीतिक विश्लेषक विकास सिंह ने अपने विचार प्रस्तुत किया है। पेश है विकास सिंह की जुबानी:-
आज मुहर्रम है..यह कोई त्योहार नही ..अन्याय , अत्याचार , झूठ और पाखँड़ के खिलाफ लड़कर अदम्य शहादत देने का गौरवशाली दिन है।
मुहर्रम (Muharram) किसी खास जाति या मज़हब का दिन नही बल्कि उन सभी लोगों का दिन है ज़िनके पास जीँदा जमीर और आत्मा है। जो ज़ुल्म और अन्याय के खिलाफ तनकर खड़ा होने का हौसला रखते हैं। जो विकट परिस्थितियो मे भी अपने सिद्धान्तो और आदर्शो से डिगे बिना सब कुछ कुर्बान कर देने का जज्बा रखते हैं।
समाज मे अच्छाई और बुराई दोनों मौजूद रहता है..और दोनों मे सतत सँघर्ष चलते रहता है। पैगम्बर मुहम्मद साहब ने इसी बुराई के खिलाफ अपना अभियान चलाया तथा ज़हालत, पाखंड और अंधविश्वास के खिलाफ लोगों को सोचने की नयी दृष्टि दी जिसे ईस्लाम कहते हैं।…उनके नवासे (बेटी फातिमा और दामाद हजरत अली के पुत्र ) हज़रत हसन और हुसैन साहब ने पैगम्बर साहब के बताये रास्ते पर चलकर समाज को अच्छाई के मार्ग पर चलने को प्रेरित करते रहे।
जिसे तत्कालिन बादशाह यजीद, जो बुराईयों का पुतला था, बर्दास्त नही कर पाया और कुचक्र रचकर इनको मरवाने का षड्यँत्र करता रहा। हजरत हसन साहब को तो ज़हर देकर मरवा दिया और हजरत हुसैन साहब को अपने लोगों द्वारा झूठ बोलकर धोखे से बुलवाया। हुसैन साहब सब जानते हुये भी लोगों का भरोसा कायम रहे इसलिए अपने परिवार और खास लोगों को लेकर चले और यजीद अपनी साज़िश के तहत उन्हें रास्ते मे रोक दिया।
साथ ही अपने समक्ष आत्मसमर्पण करने का आदेश दिया जिसे हजरत हुसैन साहब ने मना कर दिया। फिर यजीद ने इन लोगों का राशन बंद कर दिया। बगल में फरात नदी बह रही थी वहाँ पहरा लगा कर पानी भी बंद कर दिया। सातवें दिन पानी के लिये तड़पते अपने 6 माह के बच्चे को लेकर यजीद के पास गये और इस अबोध पर रहम करने की गुजारिश की लेकिन यजीद के आदमी ने तीर चला दिया जो बच्चे के गर्दन को बेधते हुये हजरत हुसैन की बाँह मे घुस गया।
यजीद हर संभव कोशिश करते रहा कि हुसैन साहब टूट जायें, लेकिन हुसैन साहब उनके परिवार के बच्चे, महिलायेंं सहित उनके सभी 72 साथी अपने उसूल और सिद्धान्त पर दृढ़ रहे। …यजीद की क्रूरता और शैतानी का जवाब सच्चाई और ईमानदारी की ताकत से देते रहे। बिना अन्न बिना पानी लड़ते रहे।..एक बेटा शहीद हो जा रहा था..फिर माँ अपने दूसरे भूखे और प्यासे बेटे को तलवार थमा युद्ध मे भेज रही थी।
दसवें दिन युद्धरत हजरत हुसैन यजीद से अनुरोध करते हैं कि थोड़ी देर युद्ध रोक दिया जाये और जुमे की नमाज पढ़ लेने दिया जाये ..लेकिन यजीद नही माना। ..फिर भी बिना उसकी परवाह किये हजरत हुसैन युद्धभूमि मे नमाज पढ़ने लगते हैं ..और जब सजदे मे हजरत हुसैन का सर झुका रहता है..यजीद उनका सर कलम कर देता है।
साथियो ! यह लिखने का मकसद यही है कि अन्याय और जुल्म के प्रतीक सत्ता के खिलाफ लड़ना आसान नही होता और उससे समझौता करने वाले नपुंसक, कायर और निर्वीर्य होते हैं। ऐसे लोगो के बल पर हीं लुटेरी और अन्यायकारी व्यवस्था टिकी रहती है। इसलिए कर्बला एकदिन मनाने की चीज़ नहीं है। यह परंपरा सदैव चलती रहनी चाहिए।
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