भूली बिसरी यादों में संजोये वह पल आज भी याद है- विकास सिंह

एस.पी.सक्सेना/ बोकारो। जीवन के कुछ ऐसे पल गुजर जाते हैं। जिसे गुजरा हुआ हं मां तो लेते हैं लेकिन उस पल को लाख कोशिशों के बाद भी भुलाया नहीं जा सकता है। और वह पल जीवन भर टीस बनकर सीने में दर्द का एहसास कराता रहता है। कुछ इसी प्रकार के यादों को आज लेकर आये हैं झारखंड के प्रखर राजनीतिक विश्लेषक व्यंगकार विकास सिंह।

आज सपने में हीराबाई आ गई। देखा तो स्तब्ध रह गया। हीराबाई अपने चीर परिचित अँदाज में स्मित हास्य के साथ करीब आते हुये पूछ बैठी… ” कैसे हो हीरामन। “
मैं चकराया..” मैं हीरामन नहीं हूँ हीराबाई, तुम्हें भ्रम हो रहा है।”
“नहीं हिरामन ! तुम्हें कैसे भूल सकती हूँ। वही नाक-नक्श, वही बाँकपन, वही भोलापन, वही ठेठ लहजा। तुम भूलने लायक हो हीं नहीं हीरामन। ” हीराबाई अपनी मोहक चितवन से निहारते हुये बोली।

मैं परेशान। यह क्या बला सिर पे आ पड़ी।
“जानते हो हिरामन ! जब तुम मुझे स्टेशन पर पहुँचाने आये थे, तब से मेरा दिल तुम्हारे पास हीं छूट गया था। रह गया था सीने में एक रिक्त स्थान जो रह रह के टीस देता था। रेलगाड़ी में मेरा तन तो कानपुर की ओर भागा जा रहा था लेकिन मन पीछे तुम्हारे पास आने को ब्याकुल हो रहा था। गाड़ी की छुक छुक के साथ हीं दिल के खाली स्थान में धक धक हो रहा था।

बहुत चाहा कि अगले स्टेशन पर उतर जाऊँ और भागकर फिर तुम्हारे पास आ जाऊँ.. लेकिन नहीं आ सकी क्योंकि मैं आजाद कहाँ थी। सोने के पिजड़े में कैद इस बुलबुल का भाग्य तो हवस के सैय्याद लिखते हैं न, सो यह तन उन्हीं के इशारे पर डोलने को मजबूर.. भाग्य के लहरों पर सवार कानपुर की ओर रेल की पटरियों पर दौड़ता रहा। कब कानपुर आया पता नहीं चला। पता चलता भी कैसे। कानों में तो तुम्हारी मोहक आवाज़ जो गूँजती रही.. ‘ ‘ ‘ सजनवा बैरी हो गये हमार।
चिठिया हो तो हर कोई बाँचे
भाग न बाँचे कोय..करमवा बैरी हो गये हमार ‘।।
लेकिन मैं अपना हीं भाग्य कहाँ बाँच पायी हिरामन !

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