जियला पर छुछा भत्ता, मुअला पर दुधा भत्ता- प्रिंस

एस.पी.सक्सेना/ बोकारो। मशहूर कहावत है “पुत सपूत तो धन क्यूँ संचय और पुत कपुत तो धन क्यूँ संचय।” अर्थात धन संचय के बजाय लोगों को अपने संतानों में संस्कार भरने की जरुरत है तभी समाज वास्तविक रूप से उन्नतिशील बनेगा। और पिता को अपनी संतानो पर पछ्तावा नहीं होगा। इसी प्रकार के खट्टे मीठे अनुभवों को व्यंग के रूप में साझा कर रहा है बोकारो जिला के हद में बेरमो (Bermo) प्रखंड के गायत्री कॉलोनी निवासी लेखक प्रिंस बैजनाथ का यह लेख:-

खों-खों आह फिर खों-खों। यह खांसी उस वयोवृद्ध का है जो खांसी से परेशान हमेशा खांसता रहता था। रह-रहकर अपनी बहु को आवाज भी लगाता ‘बहु अरी ओ बहु तनी पानी दे दअ, बड़ी प्यास लागल बा।’ मगर उसकी आवाज का कोई असर उसकी बहु पर नहीं पड़ता। बहु तो अपनी धुन में टेलीविजन देखने में मस्त है।

अचानक उसका पांच साल का पोता(पुत्र का बेटा)अपनी माँ से कहता है दादाजी कितना आवाज दे रहे हैं। दादाजी पानी मांग रहे हैं। क्या आपको सुनाई नहीं दे रहा है? इतने पर बहु झल्लाकर अपने बेटे को कहती हैं “मैं सब सुनती हूँ। मैं बहरी नहीं हूँ। तेरे दादा को चिल्लाने की आदत हो गया है। आने दो तुम्हारे पापा को। आज फैसला हो ही जायगा।”

शाम को पति को दफ्तर से आते ही पत्नि नागिन की तरह फूफकार मारते हुए कहती है “सुनो जी अब बहुत हो गया। यह रोज-रोज रात-दिन का किच-किच से मेरा मन ऊब गया है। आपके पिताजी के बहकल मन से मेरा जीना मुहाल है। हर दस दस मिनट में कुछ न कुछ मांगते रहते हैं। चैन से दो घड़ी बैठने भी नहीं देते हैं। मैं पूछती हूँ क्या आप ही एक बेटा हैं? और भी तो इनके दो बेटा है। क्या उन सभी की कोई जिम्मेवारी नहीं है? क्या आप ही ये टेंशन झेलियेगा। मुझसे अब यह सब नहीं होगा।”

पत्नि की बात सुन वह अपने पिता के पास जाकर झल्लाकर बोलता है क्या है पिता जी आप इतना क्यों परेशान करते रहते हैं? चैन से तो जीने दिजीये। यह सुन पिता अपने सीने के दर्द को दबाते हुए कहता है “बाबू खांसी परेशान कईले बा। तनी दवाई ला दितअ। बहुत तकलीफ में बानी।” यह सुन वह थोड़ा नरम पड़ते हुए कहता है कि तनख्वाह मिलने दिजीये देखते हैं। पिता विवशतावश केवल अपने पुत्र को देखता रह जाता है।

अगले दिन दफ्तर जाने से पूर्व पत्नि कहती है कि मेरा फेसवाश और फेसक्रिम खतम होनेवाला है लौटते समय लेते आइएगा। पति सहमति में सिर हिलाकर दफ्तर चला जाता है।
इस प्रकार समय गुजरने के साथ एक दिन वृद्ध की मृत्यु हो जाती है। विडंबना यह कि जो बेटा अपने पिता को जीते जींदगी दवा नहीं लाकर देता है वही उसके श्राद्धकर्म में विभिन्न प्रकार का भोग व्यंजन अपने रिशतेदारों,पहचान वालों व् पुरोहितों को खिलाता है।

यह क्या नियति है कि एक पिता जिसने जन्म दिया। खुद अपनी इच्छाओं का गला घोंटकर अपनी सन्तान का पालन पोषण करता है। वही पिता पानी और दवा के बिना एड़ियाँ रगडते रगडते मर जाता है। उसकी मृत्यु के बाद समाज को दिखाने के लिए व् अपना नाम को उंचा रखने के लिए पुत्र द्वारा श्राद्धकर्म के नाम पर बढ़-चढ़कर खर्च करता है। आखिर उस तडपते मृतात्मा को क्या मिला?

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