रांची। झारखंड राज्य की स्थापना के 16 साल बाद भी यहां के लोग उसी चौराहे पर हैं जहां पहले थे! मौजूदा स्थिति और भी भयानक हो गई है। राज्य के कोल्हान क्षेत्र अंतर्गत सारंडा एवं आसपास के क्षेत्रों में आदिवासियों की हालत बद से बत्तर है। आदिवासियों की स्थिति को जानने व समझने के लिए विनोबा भावे विश्वविद्यालय में एलएलबी के छात्र संजय मेहता व युवा फिल्म निर्देशक निरंजन भारती ने नक्सल प्रभावित सारंडा वन क्षेत्र का दौरा किया।
इन दोनों ने आदिवासियों के बीच रहकर उनकी आप बीती सुनी व पस्थितियों का अध्ययन किया। व्यक्तिगत तौर पर भारती और मेहता की मुलाकात और अध्यन क्या रंग लाएगी कहना मुश्किल है। लेकिन आदिवासियों के बद से बदतर हालात व उनकी जीवन शैली बेहद अफसोसनाक है। जंगलों में किसी तरह रहने वाले आदिवासियों का दर्द कोई जान सकेगा? क्या इन दोनों की पहल उन्हें न्याय दिला सकेगी? जैसा की हर भारतीय का मौलिक अधिकार है?
झारखंड के आदिवासी क्षेत्रों में कुपोषण के शिकार बच्चे असमय काल के गाल में समाते जा रहे हैं। यहां मलेरिया, डेंगू,जैसी अनेक बिमारियां अपना पांव पसारती जा रही हैं। इस तरह की जानलेवा बिमारियों के शिकार हजारों बच्चे हैं। इन क्षेत्रों में शिक्षा का भारी अभाव है, स्वास्थ्य की हालत दयनीय, इनके पास खाने को भी नहीं है। इस तरह के कई सवालों हैं जिसका जवाब सरकार के पास नहीं है।
झारखंड की राजधानी राँची से महज 136 किमी की दूरी पर चाईबासा है, वहीं सारंडा लगभग 200 किमी दूर है। चाईबासा को झारखंड के कोल्हान प्रमंडल का मुख्यालय कहा जाता है। इस क्षेत्र को पश्चिमी सिंहभूम एवं लोहांचल के नाम से जाना जाता है। इन क्षेत्रों में आदिवासियों की हालत पशुओं से भी बदतर है। आदिवासी जीविका के लिए तरस रहे हैं। लेकिन इनकी सुध लेने वाला कोई नहीं है। सरकार राजनीति में व्यस्त है वहीं सरकारी अधिकारी उनकी वाह-वाही में लगे हैं। ऐसे में विकास की बातें करना महज एक जुमला ही कहा जा सकता है।
नक्सल प्रभावित सारंडा के आदिवासी गाँव के लगभग हर चौथा बच्चा कुपोषण का शिकार है। इन्हें शिशुकाल में पोषण नहीं मिलता जिसके कारण इन बच्चों की हालत चिंताजनक हो गई है। इतना ही नहीं गर्भवती महिलाओं को भयंकर समस्याओं का सामना करना पड़ता है। लौह अयस्क क्षेत्र होने के कारण यहां के लोग नालों का पानी पीने को मजबूर हैं।
इन क्षेत्रों में हर तरफ निराशा और बेबसी ही नजर आती है। संजय मेहता व निरंजन भारती के अनुसार इस परिसर के किरीबुरू, मेघाहातुबुरु, बड़ाजामदा, गुवा, कोटगढ़, जेटेया, बड़ापसिया, लोकसाई, बालिझरण, दिरीबुरु, बराईबुरु, टाटीबा, पेटेता, पोखरपी, कादजामदा, महुदी, नोवामुंडी समेत कई अन्य गाँवों में यहां के मूल निवासी आदिवासी जिंदगी से जंग लड़ रहे हैं। जबकि गुवा में स्टील प्लांट भी है। इस परीसर में बाहर की बड़ी -बड़ी कंपनियां करोड़ो कमा रही हैं। लेकिन गरीब आदिवासियों की सुध लेने वाला कोई भी नहीं है। इस बात की पुष्ठि यूनिसेफ और राज्य सरकार के रिपोर्ट में हो चुकी है।
गौर करने वाली बात यह है कि फरवरी 2017 में राज्य सरकार एवं यूनिसेफ की एक रिपोर्ट में सच्चाई को छुपाते हुए कहा गया था कि सारंडा क्षेत्र के 20 प्रतिशत बच्चे कुपोषण के शिकार हैं। इस रिपोर्ट में सही आंकड़ा नहीं पेश किया गया। इस क्षेत्र की जमीनी हकीकत से कोसों दूर है यह आंकड़ा। इस क्षेत्र के सुदूर गाँवों में सरकारी सुविधाएं महज नाम के लिए हैं। इस इलाके के ग्रामीणों को पीने का पानी तक नहीं मिल पाता। बाहरी कंपनियों से पटे इस क्षेत्र में बेरोजगारी भी चरम पर है।
सरकारी दावों के विपरीत यहां के कई गांवों में बिजली भी नहीं पहुँची है। कुछ ऐसे ही हालत रोड और नालों का भी है। किरीबुरू पंचायत की मुखिया पार्वती किंडो ने बताया कि सेल लीज क्षेत्र होने के कारण विकास की राशि वापस चली जाती है। सेल अनापत्ति प्रमाण पत्र प्रदान नहीं करती है क्योंकि सेल का अपना सीएसआर का कार्य होता है। उन्होंने कहा कि इस ओर कई बार पदाधिकारियों का ध्यान आकृष्ट कराया गया लेकिन कुछ नहीं हुआ।
किरीबुरू के जोलजेल बिरुआ दुर्दशा बताते हुए कहते हैं कि सरकार की हर योजना फेल है। हमलोग को कुछ सुविधा कहीं से नहीं मिलता। बडाजामदा के प्रफुल्लो नाकुड़ ने कहा कि हमारे क्षेत्र में विकास का काम भगवान भरोसे है। बेबसों की जिंदगी जी रहे यहां के लोगों का कहना है कि बच्चे बीमार रहते हैं, अस्पताल में डॉक्टर नहीं हैं हमलोग करे भी तो क्या करें?
गुवा के जुराबोदरा ने कहा कि एक तो हमलोग बेरोजगार है। ऊपर से सरकारी शून्य है। बड़ापासिया गाँव के घनश्याम बोबोंगा कहते हैं कि आदिवासियों की हालत बहुत खराब है। हमलोग निम्न स्तर की जिंदगी जीने को मजबूर हैं। सरकारी सुविधा हमलोगों को नसीब नहीं होती। नोवामुंडी की आदिवासी महिलाओं ने कहा कि हम कोलई नाम के कीड़े को भूनकर खाते और बेचते भी हैं।
सारंडा एक्शन प्लान छलावाः ग्रामीण
ग्रामीण कहते हैं झारखंड बनने के बाद आदिवासियों के विकास की बात कही गई थी, कई वादे किए गए। करोड़ों रुपये खर्च किये गए केंद्र सरकार ने भी पहल की लेकिन तस्वीर नहीं बदली। पूर्व केंद्रीय मंत्री जयराम रमेश ने भी इस क्षेत्र में कई दौरा किया था। लेकिन अब भी मामला शून्य ही है।
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