‘डार्क मैटर’ की खोज में जुटे भारतीय वैज्ञानिक

दिल्ली। भारतीय विज्ञानियों को ज़मीन के बहुत नीचे ज़मीन की सतह से लगभग आधा किलोमीटर नीचे एक लैबोरेटरी मिल गई, जिसमें वे उस ‘डार्क मैटर’ की खोज कर सकते हैं, जो आकाशगंगाओं को संभाले रहता है, उन्हें जोड़े रखता है। ऊर्जा तथा तत्व का ही एक रूप होने के बावजूद आज तक विज्ञानी कभी ‘डार्क मैटर’ को खोज नहीं पाए हैं।

‘डार्क मैटर’ की खोज के लिए विज्ञानियों को ज़मीन में बहुत गहराई तक जाना पड़ता है, ताकि उनके प्रयोगों को कॉस्मिक किरणों तथा अन्य प्रकार के रेडिएशनों से बचाए रखा जा सके। उनके सिरों के ऊपर मौजूद चट्टानें उन अवांछित किरणो को सोख लेती हैं, जो उनके प्रयोगों को नाकाम कर सकती हैं।
तीन साल पहले इस लैबोरेटरी का उद्घाटन हुआ था, और कोलकाता के साहा इंस्टीट्यूट ऑफ न्यूक्लियर फिज़िक्स (एसआईएनपी) के विज्ञानी इस लैबोरेटरी को चला रहे समूह का नेतृत्व कर रहे हैं।

यह लैब झारखंड के जादूगोडा स्थित गहराई में बनी यूरेनियम की खान के ऐसे हिस्से में बनाई गई, जिसका इस्तेमाल नहीं होता था। लैबोरेटरी कोलकाता से लगभग 260 किलोमीटर दूर है, और झारखंड की राजधानी रांची से 150 किलोमीटर। यह भारत की पहली यूरेनियम खान है, जिससे हाल ही तक लगभग 420 टन यूरेनियम निकाला जा चुका है।

आज इस खान की जिस परत से यूरेनियम निकाला जा रहा है, वह ज़मीन से 880 मीटर नीचे है। इसी खान के ऊपर की एक परत में लैबोरेटरी ज़मीन से 555 मीटर की गहराई पर बनी हुई है, और इसकी स्थापना सिर्फ 20 लाख रुपये की लागत से हुई थी। इस प्रोजेक्ट के लीड रिसर्चर सत्यजित साहा ने बताया, हमें लगभग तैयार गुफा मिल गई, जिसे अंडरग्राउंड लैबोरेटरी में तब्दील किया गया। ”

लैब का प्रवेशद्वार उस बेहद सुरक्षित कॉम्प्लेक्स में है, जो यूरेनियम कॉरपोरेशन ऑफ इंडिया का है। किसी को भी धरती के नीचे जाने के लिए एक लिफ्ट है, जो कुल तीन मिनट के सफर के बाद यूरेनियम की खान में पहुंचा देती है, जहां से लैब कुछ ही कदम की दूरी पर है।

‘डार्क मैटर’ उस आकाशीय गोंद को कहा जाता है, जो पूरे ब्रह्मांड को जोड़े हुए है, लेकिन अब तक इसके होने का कभी कोई भौतिक प्रमाण नहीं मिल पाया है। दुनिया में जो मैटर आंखों से देखे जा सकते हैं, वे कुल मौजूद मैटर का सिर्फ 4.6 फीसदी है। शेष में से एक बड़ा हिस्सा – 24 फीसदी – को डार्क मैटर कहा जाता है, जिसे कभी नहीं देखा गया, और शेष 71.4 फीसदी को डार्क एनर्जी कहा जाता है।

विज्ञानियों को उम्मीद है कि नई लैब से इस गुत्थी को सुलझाने में मदद मिलेगी। 2 सितंबर को इस फैसिलिटी का उद्घाटन करने वाले भारत के परमाणु कार्यक्रम के प्रमुख डॉ शेखर बसु ने बताया, “हो सकता है, कल हमें पता चले, अलग-अलग प्रकार के ग्रह अलग-अलग प्रकार के डार्क मैटर से बने हैं, और अलग-अलग प्रकार के जीवन मौजूद हैं… जानकारी बढ़ाने की बहुत गुंजाइश है।

ज़मीन के नीचे लैब के मामले में जादूगोडा देश का दूसरा प्रयोग है। इससे पहले 1992 में कर्नाटक की कोलार सोने की खान में इसी तरह की एक फैसिलिटी क बंद करना पड़ा था, क्योंकि उसमें पानी भर गया था।

चार दशक तक ज़मीन से 2.3 किलोमीटर नीचे बनी उस फैसिलिटी में कई अभूतपूर्व उपलब्धियां हासिल की गईं। कोलार फैसिलिटी में एक दशक तक काम करते रहे SINP के विज्ञानी नाबा मोंडाल ने कहा, “25 साल बाद, भारत के पास ज़मीन के नीचे दूसरी रिसर्च फैसिलिटी मौजूद है… हालांकि यह बहुत गहरी नहीं है, लेकिन कम से कम यह पूरी तरह हमारी है।

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