विशेष आलेख:-
3 जुलाई 1899 को बाबू लंगट सिंह ने रखी थी महाविद्यालय की आधारशिला
हाजीपुर (वैशाली)। लंगट सिंह कॉलेज (Langat singh collage) और लंगट सिंह का जीवन परिचय वरिष्ठ पत्रकार सह अधिवक्ता गंगोत्री प्रसाद सिंह की कलम से:- महामानव बाबू लंगट सिंह और उनके परिवार का समाज को योगदान जीवन परिचय हाजीपुर मुजफ्फरपुर रेल खंड के सराय स्टेशन (Saray station) से 5 किलोमीटर पश्चिम वैशाली जिले के धरहरा ग्राम के गोउनाइत् मूल के भूमिहार ब्राह्मण किसान बाबू बिहारी सिंह के पुत्र के रूप में लंगट सिंह का जन्म सन 1850 के अश्विन माह में हुआ। इनके दादा उजियार सिंह पढ़े लिखे किसान थे।
गांव में कोई स्कूल नही होने की वजह से इनकी शिक्षा प्राइमरी तक हुई। 15-16 वर्ष की उम्र में हीं इनकी शादी हो गई। तब बाबू लंगट सिंह के परिवार को कोई ज्यादा भूमि नही थी। जिस वजह से लंगट सिंह आजीविका के लिये समस्तीपुर आ गए। जहाँ समस्तीपुर दरभंगा रेल लाइन का काम चल रहा था। वहाँ इनको रेल पटरी के बगल में टेलीफोन लाइन में लाइन मैन का काम मिल गया।
रेल लाइन का काम कर रहे अंग्रेज अभियंता ग्रीयर विल्सन इनके काम व् लगन से प्रभावित होकर इनको मजदूरों का सुपरवाइजर बना दिया और लंगट सिंह ग्रीयर साहब के साथ दरभंगा में रहने लगे। ग्रीयर की पत्नी की बहन मुजफ्फरपुर में रहती थी। उसके पति जेम्स विलियम विल्सन मुजफ्फरपुर के निलहे जमींदार थे। उन दिनों मुजफ्फरपुर दरभंगा टेलीफोन से ज़ुड़ा हुआ नही था, जिस वजह से ग्रीयर की पत्नी का जरूरी पत्र जिसमें ग्रीयर साहब की पत्नी की बहन के संतानोत्पत्ति की खबर लेकर लंगट सिंह पैदल मुजफ्फरपुर आये।
वह भी बाढ़ के समय में 18 घंटे में जबाब लेकर लौट गए। जिससे ग्रीयर की पत्नी लंगट सिंह को काफी मानने लगी और लंगट सिंह को अंग्रेजी लिखना बोलना सिखाई। उसने ग्रीयर से पैरवी कर दरभंगा नरकटियागंज रेल लाइन निर्माण में ठेकेदारी दिलवा दी। इस तरह लंगट सिंह मजदूर से ठीकेदार हो गए।
रेल लाइन निर्माण के क्रम में ट्राली से जाते समय लंगट सिंह का ट्राली मालगाड़ी से टकरा गया, जिसके चलते इनको अपना एक पैर गवाना पड़ा। लेकिन लंगट सिंह ने हार नही मानी और न अंग्रेज ग्रियर ने लंगट बाबु का साथ छोड़ा। ठीकेदारी के काम में इनके पुत्र श्यामानन्द प्रसाद सिंह उर्फ आनन्द बाबू सहयोग देने लगे। रेल की ठीकेदारी से लंगट सिंह ने काफी रुपया कमाया।
गांव में बहुत सी जमीन और जमींदारी खरीद अपने गांव में भव्य मकान बनवाया। दरभंगा से ग्रीयर साहब कलकत्ता महा नगरनिगम के अभियंता बनकर कलकत्ता आ गए। तब ग्रीयर दम्पति के अनुरोध पर लंगट सिंह भी अपने पुत्र आनन्द बाबु के साथ 1880 के लगभग कलकत्ता आ गए और कलकत्ता महा नगरनिगम में ठीकेदारी करने लगे। ठीकेदारी और काम में ईमानदारी के लिये लंगट सिंह का नाम आदर के साथ लिया जाता था।
मैक डोनाल्ड बोर्डिंग हॉउस के निर्माण के दौरान लंगट सिंह का पंडित मदन मोहन मालवीय से सम्पर्क हुआ। मालवीयजी के अलावे वहाँ स्वमी दयानन्द सरस्वती, रामकृष्ण परमहंस, ईश्वरचंद विद्या सागर, आशुतोष बनर्जी से सम्पर्क हुआ। इन महापुरुषों के सम्पर्क में आने के बाद लंगट सिंह का झुकाव भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन की ओर हो गया। लंगट सिंह स्वदेशी के समर्थक हो गए।
कलकत्ता में स्थापित प्रथम स्वदेसी बिक्री केंद्र स्वदेसी स्टोर्स बंग कॉटन मिल्स के लंगट सिंह भी एक निदेशक थे। लंगट सिंह ने मुजफ्फरपुर में भी पहला स्वदेसी तिरहुत स्टोर्स खुलवाया। 1890 के आसपास लंगट सिंह को मुजफ्फरपुर जिला परिषद के अंदर भी ठिका कार्य मिलना शुरू हो गया। ठीके का सारा काम उनके पुत्र देखते आए और ठीकेदारी से बाबु लंगट सिंह और उनके पुत्र ने काफी धन कमाया।
मुजफ्फरपुर का जो आज सुतापट्टी है वहां से कल्याणी तक लंगट सिंह ने करीब 50 बीघा जमीन खरीदी तथा बहुत से मौजे की जमींदारी भी खरीदी।
कलकत्ता प्रवास के दौरान मदन मोहन मालवीय और अन्य विद्वानों के सानिध्य में लंगट सिंह ने देश दुनियां का ज्ञान अर्जित किया और अपना समय समाज सेवा में देने लगे। लंगट सिंह ने 1886 में कांग्रेस के कलकत्ता महाधिवेशन में भाग लिया।
1895 भूमिहार ब्राह्मण महासभा बनारस
मालवीय जी के अनुरोध पर लंगट सिंह भूमिहार ब्राह्मण महासभा में पहली बार बनारस में सम्मिलित हुई। काशी नरेश की अध्यक्षता में हुई इस माह सभा में तमकुही नरेश, दरभंगा महाराज, हथुआ महाराज, टेकारी महाराज, माझा स्टेट सहित भूमिहार जमींदार सम्मलित हुए। महासभा में मालवीय जी के प्रयास से बनारस में हिन्दू विश्वविद्यालय खोलने का प्रस्ताव पास हुआ।
सभी राज्यों ने चन्दा देने की बात कही लेकिन जब चन्दा के रूप में लंगट सिंह ने एक लाख टका की अपनी बोली रखी तो सभी चकित हो गए कि एक बैशाखी से चलनेवाला साधारण व्यक्ति इतना बड़ा चन्दा दे सकता है। तब मालवीयजी ने लंगट सिंह का सभी से परिचय करवाया। उक्त महासभा में लंगट सिंह को काफी सम्मान मिला।
सभा में ही लंगट सिंह को मुज़फ़्फ़रपुर में भी कॉलेज खोलने का विचार आया और लंगट सिंह ने इसी उद्देश्य से मुजफ्फरपुर में भूमिहार ब्राह्मणों की सभा बुलाने का काशी नरेश से आग्रह किया। जिसे सभा ने स्वीकार किया। बाबु लंगट सिंह के प्रयास से जनवरी 1899 में भूमिहार ब्राह्मण सभा का मुजफ्फरपुर मेंअधिवेशन हुआ, जिसमें काशी नरेश महाराज प्रभुनारायण सिंह, दरभंगा महाराज, तमकुही नरेश, हथुआ महाराज, टेकारी नरेश, माझा स्टेट के अलावे मुजफ्फरपुर के आस पास के सभी जमींदार और विद्वान जन सम्मलित हुए।
महासभा में लंगट सिंह द्वारा मुजफ्फरपुर में डिग्री कॉलेज खोलने के प्रस्ताव को महासभा द्वारा पास किया गया और कॉलेज निर्माण के लिये सभी ने चन्दा देना स्वीकार किया।महासभा की समाप्ति के बाद हथुआ महाराज और दरभंगा महाराज ने मुज़फ़्फ़रपुर में कॉलेज खोले जाने को लेकर बाबु लंगट सिंह को सहयोग नही दिया, क्योंकि दरभंगा महाराज दरभंगा में कॉलेज खोलना चाहते थे। जबकि हथुआ महाराज छपरा में।
जिस वजह से लंगट सिंह को परेशानी होने लगी। तब लंगट सिंह ने मुजफ्फरपुर के सभी जमींदारों की मुजफ्फरपुर में बैठक बुलाई, जिसमे सभी ने मुजफ्फरपुर में हाई स्कुल के साथ कॉलेज खोलने का प्रस्ताव दिया। क्योंकि मुजफ्फरपुर में जो जिला स्कुल था उसमें गरीब बच्चों का एडमिशन नही हो पाता था। इस बैठक में हाई स्कूल और कॉलेज खोलने और उसका खर्च और संचालन की जिम्मेवारी उठाने वाले एक 22 सदस्यों की प्रबन्ध समिति गठित की गई।
जिसमें बाबू लंगट सिंह के अलावे शिवहर नरेश शिवराज नन्दन सिंह, हरदी के जमींदार बाबु कृष्ण नारायण सिंह, जैतपुर स्टेट के रघुनाथ दास, यदुनन्दन शाही, महंथ प्रमेश्वर नारायण, महंथ द्वारिका नाथ, योगेंद्र नारायण सिंह थे। इसी बैठक में बाबु लंगट सिंह ने स्कूल और कॉलेज खोलने के लिये अपनी सरैयागंज वाली 13 एकड़ जमीन दिया।
भूमिहार ब्राह्मण कॉलेजिएट स्कुल और भूमिहार ब्राह्मण कॉलेज की स्थापना
बाबु लंगट सिंह के नेतृत्व में गठित प्रबन्ध समिति के सदस्यों द्वारा 3 जुलाई 1899 को सरैयागंज में बाबु लंगट सिंह द्वारा दी गई भूमि 13 एकड़ भूखण्ड में भूमिहार ब्राह्मण कॉलेजिएट स्कुल और भूमिहार ब्राह्मण कॉलेज की नींव रखते हुए शुभारम्भ किया गया। महज 2 माह के अंदर ही छात्रों के पढ़ने के लिये कमरा तैयार हो गया और शिक्षकों की व्यवस्था कर पढ़ाई चालू हो गई।
कॉलेज का कोलकत्ता विश्वविद्यालय से सम्बन्धन बाबु लंगट सिंह के प्रयास से सन 1900 में ही कॉलेज को प्री डिग्री कॉलेज के रूप में मान्यता मिल गई। बाद में लंगट सिंह के मित्र और सहयोगी ग्रीयर साहब के सहयोग से कॉलेज को डिग्री तक मान्यता मिल गई।
बाबु लंगट सिंह को जीवन में आगे बढ़ाने का श्रेय अंग्रेज ग्रीयर का रहा। उन्होंने कॉलेज स्थापित करने में लंगट सिंह को काफी मदद की, जिस वजह से बाबु लंगट सिंह ने कॉलेज के नाम के आगे ग्रीयर का नाम जोर दिया और कॉलेज का नाम ग्रीयर भूमिहार ब्राह्मण कॉलेज हो गया।
सन 1906 में बाबु लंगट सिंह कांग्रेस के कलकत्ता अधिवेशन में भाग लेने गए, जहाँ उनकी मुलाकात बाबु राजेन्द्र प्रसाद से हुई। लंगट सिंह ने राजेन्द्र प्रसाद को कॉलेज में पढ़ाने के लिये राजी कर लिया। राजेंद्र प्रसाद सन 1908 में प्रोफेसर के रूप में कॉलेज में आ गए। सन1909 में कलकत्ता विश्वविद्यालय के प्रतिनिधि कॉलेज निरीक्षण के लिये मुजफ्फरपुर आया और विश्वविद्यालय प्रतिनिधि ने एक ही कैम्पस में स्कूल और कॉलेज और छोटे छोटे कमरों में छात्रों की पढ़ाई की व्यवस्था देख भड़क गया।
प्रबंध समिति को धमकी दिया की कॉलेज के लिये अलग जमीन और भवन की व्यवस्था नही हुई तो कॉलेज की मान्यता खत्म हो जायेगी जिसके बाद बाबु लंगट सिंह और प्रबंध समिति के सदस्यों ने खबरा के जमींदार के सहयोग से दमुचक और कलमबाग चौक के बीच 22 एकड़ जमीन खरीद किया और इस भूमि में 1911 से कॉलेज के लिये मकान बनना शुरू हुआ।
इसी बीच 15 अप्रैल 1912 को महामानव लंगट सिंह का स्वर्गवास हो गया। उनकी मृत्यु के बाद लगा कि कॉलेज का काम ठप्प हो जायेगा, लेकिन लंगट बाबु के पुत्र अनन्द बाबु ने अपने पिता द्वारा शुरू किये गए इस कॉलेज के भवन का कार्य पुरा करवाया और कॉलेज अपने नये भवन में 1915 में आ गया। कॉलेज का नाम ग्रीयर भूमिहार ब्राह्मण कॉलेज से लंगट सिंह कॉलेज हो गया और पटना विश्वविधालय के गठन के बाद लंगट सिंह कॉलेज 1917 में पटना विश्वविद्यालय से सम्बद्ध हो गया।
बाबु लंगट सिंह के सबंध में समाज में यह भ्रान्ति है कि वे अनपढ़ थे। यह सही है कि वे किसी स्कूल, कॉलेज में नही पढ़े थे। बचपन में वे सिर्फ प्राइमरी तक पढ़ना लिखना सीखा, लेकिन कार्य के दौरान अपने स्वअध्ययन के बल पर अंग्रेजी, बंगला और हिंदी का अध्ययन किया। यदि लंगट बाबु अनपढ़ होते तो कलकत्ता के विद्वतजन और मालवीयजी या अंग्रेज अधिकारी से उनका सम्पर्क होना मुश्किल था। बाबु लंगट सिंह को 7 दिसम्बर 1910 में हुई इलाहबाद के कॉंग्रेस अधिवेशन में मुजफ्फरपुर का प्रतिनिधि निर्वाचित किया गया।
इलाहाबाद कुम्भ में धर्म संसद द्वारा बाबु लंगट सिंह को बिहार रत्न से सम्मानित किया गया। साथ ही इंग्लैंड के राजा द्वारा लंगट बाबु को बिहार का शिक्षा स्तम्भ घोषित किया गया।
मुजफ्फरपुर जिले का रैनी स्टेट का शाहू परिवार में सबसे धनी घराना था। कुछ मुकदमो के दौरान लंगट बाबू के परिवार के जमीन संबंधित केवाला दस्तावेज 1900 से 1917 के बीच का देखने का मुझे मौका मिला जिसमे कई एक दस्तावेज लंगट बाबु के लड़के अनन्दा बाबू और रैनी स्टेट के वरिसो के संयुक्त नाम में है।
लोगों ने बताया कि रेल की ठेकेदारी या अन्य जगहों की ठेकेदारी में लंगट सिंह को पैसा रैनी स्टेट से मिलता था। यानी लंगट बाबु के परिवार का रैनी स्टेट से व्यवसायिक सबंध था।
लंगट बाबु के पुत्र अनन्दा बाबु शुरू से ही अपने पिता की ठीकेदारी का काम देखते थे।उनके पिता का अंग्रेज अधिकारी और गवर्नर जेनरल तक नाम आदर के साथ लिया जाता था। अनन्दा बाबु का भी उनसे अच्छा संबंध था।
पिता की जिंदगी से ही अनन्दा बाबु कॉलेज का काम देखते आए और पिता की मृत्यु के बाद अनन्दा बाबु ने अपने पिता द्वारा शुरू किये गए कॉलेज को भव्य बनाने के उद्देश्य से अपने अंग्रेज मित्र से सम्पर्क किया। इंग्लैंड के ऑक्स्फोर्ड विश्वविद्यालय के वेलियोल कॉलेज के भवन के समान कॉलेज भवन बनाने के लिये प्रयास शुरू किया और वर्तमान में जो लंगट सिंह कॉलेज का भवन है वह 1912 में बनना शुरू हुआ जिसका उद्घाटन 22 जुलाई 1922 को राज्य के गवर्नर द्वारा किया गया।
अनन्दा बाबु के प्रयास से कॉलेज को सरकार ने ले लिया। इस तरह अनन्दा बाबु ने अपने पिता द्वारा शुरू कॉलेज को पूर्णता और भव्यता प्रदान की। अनन्दा बाबु ने अपने गांव में एक हाई स्कूल के अलावे कई संस्था का निर्माण कराया। अनन्दा बाबु देश के स्वतंत्रता आंदोलन के क्रांतिकारियों को आर्थिक सहयोग दिया। गद्दार फणीन्द्र नाथ घोष हत्या में फंसे क्रन्तिकारी बैकुंठ शुक्ल और उनके साथियों को बचाने के लिये प्रिवी कौंसिल तक क़ानूनी खर्चे किये।
आज अनन्दा बाबु द्वारा समाज के लिये किये गये उनके कार्यो को लोग भुला चुके हैं। नई पीढ़ी को उनके बारे में कोई जानकारी भी नही है। बाबु लंगट सिंह के पौत्र बाबु दिग्विजय नारायण सिंह राजनीतिक सन्त हुए। 1930 में कॉंग्रेस से जुड़े और आजादी के बाद सन 1952 से 1980 तक 28 वर्ष लगातार मुज़फ़्फ़रपुर और वैशाली से सांसद रहे। 1980 में चुनाव हारने के बाद चुनावी राजनीति से उन्होंने सन्यास ले लिया। दिग्विजय बाबु ने समाज सेवा में अपने पुरखों की समाप्ति बेच कर लगा दिया।
1952 में बिहार विश्वविद्यालय के लिये करीब 70 बीघा जमीन दान दे दी। बाबू दिग्विजय नारायण सिंह के दो पुत्र अलख नारायण सिंह और प्रगति कुमार का किसी भी राजनीतिक दल से या राजनीति से संबंध नही है। प्रगति कुमार पटना में डॉक्टर हैं।
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