अवध किशोर शर्मा/सारण (बिहार)। सारण जिला के हद में सोनपुर अनुमंडल मुख्यालय से महज दो किलोमीटर की दूरी पर नारायणी नदी किनारे बैजलपुर ग्राम में पूर्णतः एकांत शांत स्थान पर आम्र वाटिका में जड़भरत मुनि का आश्रम स्थित है। यह रमणीय स्थान है, जिसकी शोभा अवर्णनीय है।
सच कहिए तो आज यह आश्रम भक्तों व तीर्थयात्रियों के लिए प्रातःस्मरणीय बन चुका है। यहां प्रतिदिन भक्तों की भीड़ जुटी रहती है। संतों-महात्माओं की तपोभूमि रहने के कारण इस क्षेत्र की महिमा का गान पुराणों ने भी है। सोनपुर रेलवे स्टेशन से दो किलोमीटर उत्तर गंडकी नदी के किनारे बैजलपुर में जड़भरत मुनि का आश्रम स्थित है।
इस आश्रम में भगवान श्रीविष्णु शीर्ष विराजमान है। यहां एक शिव लिंगाकार पत्थर (शिला) रूप में जड़भरत मुनि की पूजा होती है। इसी मूर्ति की यहां उपस्थिति के कारण इसका नामकरण जड़भरत तथा जड़भरत आश्रम पड़ा। जड़भरत आश्रम का भी पुराना नाम पुलहाश्रम बताया गया है।
जड़भरत आश्रम के निकट एक आम्र वाटिका के मालिक एवं समाज सेवी धनंजय सिंह बताते हैं कि सरकारी उपेक्षा एवं गंडकी नदी के कटाव के कारण आश्रम का मूल स्थान नदी के गर्भ में समा गया था। कटाव स्थल से पीछे श्रद्धालुओं ने एक मन्दिर बनाकर पुनः स्थापित कर दिया है। यह मंदिर आकर्षक और खूबसूरत भी है। यहां शादी-विवाह से लेकर कथा-पूजन, यज्ञोपवीत, मुंडन-संस्कार सभी प्रकार के प्रयोजन किये जाते हैं।
जड़भरत आश्रम जाने के लिए शहीद महेश्वर चौक से सीधे उत्तर पक्की बांध सड़क पकड़ कर जाया जा सकता है।अनेक स्थानों पर बांध सड़क के चौड़ीकरण एवं नदी साइड से पक्के सुरक्षात्मक उपाय की जरुरत है। जड़भरत घाट के आसपास नमामि गंगे योजना से घाटों के निर्माण की मांग भी चिरलम्बित है। अगर, कुछ जड़भरत आश्रम के विकास के लिए किया गया है तो वह सरकार द्वारा नहीं, बल्कि बैजलपुर के ग्रामीण रहिवासियों के अथक प्रयास से ही संभव हो पाया है।
धर्म ग्रंथों के अनुसार जड़भरत आश्रम जहां स्थित है वहां से उत्तर-पश्चिम दिशा में परिसर (वर्तमान परसा) से लेकर उल्काचेली (वर्तमान सोनपुर- हाजीपुर) तक जंगल ही जंगल था। इन जंगलों में मुनियों के जिनमें पुलत्स्य और पुलह ऋषियों के दो प्रसिद्ध आश्रम थे।
ब्रह्मा के छह मानस पुत्रों, जिनका उल्लेख विष्णु पुराण में आया है, उनमें मरीचि, अत्रि, अंगिरा, पुलत्स्य, पुलह और क्रतु हैं। पुलत्स्य और पुलह के आश्रमों में वेदों का अध्यापन और कर्मकाण्ड की शिक्षा दी जाती थी। इन्हीं ऋषियों में से एक पुलह के आश्रम में जड़भरत जी तपस्या करते थे।
ग्रामीणों की कुछ वर्ष पूर्व तक धारणा थी कि जड़भरत आश्रम के भीतर जड़भरत मुनि की पत्थर की पिंडी एवं राजा रहूगण की मूर्ति है, परंतु पुरातत्त्व विभाग के अधिकारियों ने जब सर्वेक्षण किया तो पाया कि राजा रहूगण की मूर्ति न होकर वह भगवान श्रीविष्णु का शीर्ष है, यानी विष्णुशीर्ष।
इस विष्णु शीर्ष या रहूगण की मूर्ति को चोरों ने चुरा लिया था। तब ग्रामीणों ने एक नई मूर्ति बनवायी पर चोरों ने उपरोक्त मूर्ति को वापस मंदिर में चुपके से रख दिया था। इस तरह फिर उस पुरानी मूर्ति को अपनी जगह स्थापित कर दिया गया है।
समाजसेवी धनंजय सिंह बताते हैं कि आरम्भ में क्षेत्र के गणमान्य जनों ने स्वयं प्रयास कर आश्रम के सामने एक कुटिया बनवाया था। जिस जगह पर अब उसी स्वरुप में उसी स्थल पर ग्रामीण भक्तों की कृपा से पक्का कुटिया बन चुका है।
आश्रम भी ग्रामीणों ने दोमंजिला बना दिया है। स्थानीय सीताराम समाज नामक संस्था ने दो कट्ठा जमीन भी खरीद कर मंदिर के नाम कर दी है। गंडक की रेती पर तरबूज एवं सब्जी आदि की खेती से आमदनी का कुछ हिस्सा किसान आश्रम के विकास के लिए दान भी करते हैं।
अपने प्रथम विधायिकी काल में सोनपुर के विधायक रहे विनय कुमार सिंह ने भक्तों को होनेवाली कठिनाई को देखते हुए यहां एक चापाकल भी गड़वा दिया था, परंतु अब आश्रम में पानी की कोई दिक्कत नहीं है। ग्रामीण भक्तों ने और चापाकल एवं बोरिंग भी गड़वा दिया है।
आश्रम के हाता में तीर्थयात्रियों, भक्तों व पर्यटकों के बैठने के लिए पत्थर के चबूतरे भी बने हैं।
धनंजय सिंह बताते हैं कि गांव के ही संत ब्रह्मदेव बाबा नित्यदिन यहां पूजा-पाठ करते हैं और उनके द्वारा आश्रम की देखरेख में ग्रामीण भक्त सहयोग करते हैं। शादी-विवाह के दौरान दुल्हन के ठहरने के लिए भी मंदिर प्रांगण में कमरा बना हुआ है।
यहां बिहार के पूर्व डीजीपी व हरिहरनाथ मंदिर न्यास समिति के अध्यक्ष जगद्गुरु आचार्य गुप्तेश्वर पांडेय ने भी आकर नमन किया है।परम् तपस्वी ब्रह्मलीन संत नारायण बाबा का तो निकट ही कुटिया थी जो आज भी जीर्ण-शीर्ण अवस्था में मौजूद है। वास्तव में यह दिव्य संत तीर्थ है। इसमें कोई अतिशयोक्ति नहीं।
*पुराणों व जैन ग्रंथों में भी मिलता जड़भरत मुनि का वर्णन*
जड़भरत मुनि के संबंध में कई कथाएं पुराणों और जैन ग्रंथों में प्रचलित है। एक तो यह कि वे आंगिरस के पुत्र थे तथा वेदपाठी परिवार में उनका जन्म हुआ था। शाक्तों द्वारा उन्हें एक बार पकड़ लिया गया, देवी पर बलि चढ़ाने के लिए, परन्तु भद्रकाली ने प्रकट होकर शाक्तों के पुजारी को उसी के खड्ग से उसकी हत्या कर दी।
भद्रकाली का मन्दिर नारायणी नदी के किनारे सोनपुर में आज भी उनकी स्मृति स्वरूप है, जिसे गुप्त युग का बताया जा रहा है।
दूसरा यह कि ऋषभ देव के सौ पुत्रों में वे सबसे बड़े थे। अपने जीवन काल में ही राज्य को पांचों पुत्रों में बांटकर गंडकी नदी के किनारे स्थित पुलत्स्य आश्रम में तपस्या करने चले गये। एक मृग शावक के प्रति आसक्ति के कारण मरने पर वे मृगयोनि में पैदा हुए थे।
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