इसी हरिहरक्षेत्र में अवस्थित है शंकर नारायणेश्वर का हरिहर स्वरुप
अवध किशोर शर्मा/सारण (बिहार)। सारण जिला के हद में भारत के अष्टोत्तरशत दिव्य शिवक्षेत्रों में हरिहरपुर के नाम से हरिहरक्षेत्र (सोनपुर) का उल्लेख है। इस हरिहरपुर में जो शिव प्रतिष्ठित हैं उन्हें ही शंकर नारायणेश्वर कहा गया है। शंकर नारायणेश्वर बाबा हरिहरनाथ ही हैं।
धर्म ग्रंथों से सिद्ध भी होता है कि शिव और विष्णु दृष्टि भेद से एक दूसरे से अलग तो जरूर दिखते हैं, पर हैं दोनों एक ही। बस जगत कल्याण के लिए उनके कार्य व स्वरूपों में यह अंतर परिलक्षित होता है। हरि और हर की एकता का दिग्दर्शन तो देश के मठ-मन्दिरों में होनेवाले आयोजनों में भी दृष्टिगत होता है।
श्रावण माह में बढ़ जाती हैं हरि और हर की महिमा
इस बार का संयोग देखिए कि श्रावण शिव का माह भी हैं और भगवान विष्णु का पुरुषोत्तम मास भी साथ साथ चल रहा हैं। हरि और हर की एकता का इससे बड़ा उदाहरण और क्या हो सकता हैं। यहां चैत्र कृष्ण प्रतिपदा होली के अवसर पर सदियों पुरानी परंपरा के तहत हरि और हर के मिलन का उत्सव मनाया जाता है।
इसी तरह वैकुंठ चतुर्दशी की रात को हरिहर – मिलन की रात कही जाती है। इसी रात्रि में हरि (श्रीविष्णु) एवं हर (शिव) एक दूसरे से मिलते हैं। यह अपने आप में भक्तों के लिए एक विलक्षण अवसर होता है, जब भगवान श्रीहरि से जुड़ी पूजा सामग्री से श्रीहर की पूजा होती है। और श्रीहर की पूजा सामग्री से – श्रीहरि की।
मान्यता है कि चातुर्मास की समाप्ति के बाद भगवान शंकर स्वयं विष्णु के पास जाकर जगत का भार सौंपते हैं। जो पहले हरिशयनी एकादशी के वक्त उन्होंने श्रीनारायण से प्राप्त किया था। यह विलक्षण दृश्य मध्य प्रदेश के महाकालेश्वर उज्जैन में देखने को मिलता है।
सोनपुर मेला ग्राउंड में हरिहरनाथ मंदिर के दिवंगत महंत अवध किशोर गिरी द्वारा वर्षों पूर्व हरिहरात्मक यज्ञ कराया गया था, जो इसी एकता का सूचक है। हरिहर की संयुक्त मूर्तियों का एक ही सार है, दोनों में परस्पर एकता के भाव को जनमानस के समक्ष उजागर करना।
दिव्य शिव क्षेत्रों में वर्णित हरिहरपुर ही है सोनपुर का हरिहर क्षेत्र
कल्याण के 30 वें वर्ष के विशेषांक तीर्थांक के पृष्ठ 450 के अष्टोत्तरशत दिव्य शिव-क्षेत्र के 8 वें श्लोक में लिखा है कि “कण्वपुर्या तुकण्वेशो मध्ये मध्यार्जुनेश्वर. हरिहरपुरे श्रीशंकर नारायणेश्वर।।”
इस बात की पुष्टि करते हुए कल्याण के शिवांक के 8वें वर्ष के विशेषांक में प्रयाग के बड़ा स्थान दारागंज के संत वैष्णव रामटहल दास ने अष्टोत्तरशत दिव्यदेश प्रकरण में हरिहरपुर को हरिहर क्षेत्र के रूप में उल्लेख किया है।
उन्होंने लिखा है कि हरिहरक्षेत्र में जो शिव विराजमान हैं उन्हें शंकर नारायणेश्वर कहा जाता है। सौर पुराण में भी कहा गया है कि हरि और हर में कोई अंतर नहीं है। मत्स्य पुराण तो हरि श्रीविष्णु को रुद्र मूर्ति और हर श्रीशिव को विष्णु रूपिन कहा है। इसी तरह विष्णु सहस्रनाम में शिव और शिव सहस्रनाम में विष्णु का नाम स्मरण यही संकेत करता है कि मूल रूप से दोनों एक ही हैं।
हरि और हर श्रीविष्णु एवं श्रीशिव के सर्वाधिक प्रसिद्ध नाम हैं। संस्कृत भाषा की मूल व्युत्पत्ति की दृष्टि से दोनों का एक ही अर्थ होता है – चुराने वाला। मनुष्यों के स्वयं के अर्जित और संचित पापों को स्मरण मात्रा से चुराई गई शराबी को श्रीहरि ने कहा है।
यजुर्वेद के श्रीरुद्राध्याय श्रीशिव को स्थाणानां पतिः तथा ताराणां पतिः प्रकट किया गया जाना भी इसी एक्य रहस्य को उजागर करता है।
महाभारत में तो भगवान श्रीशिव ने पार्वती जी के पूछने पर स्पष्ट रूप से स्वीकार किया है कि देवताओं में उनके सबसे प्रिय विष्णु हैं।
हरि और हर में भेद बुद्धि रखने वाला अज्ञानी
श्रीमद्भागवत में भगवान शिव ने महर्षि मार्कण्डेय को उपदेश दिया कि हरि और हर को भेद बुद्धि से देखने वाला अज्ञानी है। जो भक्त उन्हें समान दृष्टि से देखता और मानता है, वही शांति प्राप्त करने का अधिकारी होता है। रामचरितमानस के बालकांड में ही गोस्वामी तुलसीदास ने स्पष्ट उद्घोषित कर दिया है कि प्रभु पद प्रीति न सामुझि नीकी। तिन्हहिं कथा सुन लागिहिं फीकी।। हरि हर पद रति मति न कुतरकी।
तिन्ह कहँ मधुर कथा रघुवर की ।। जिन्हें न तो प्रभु के चरणों में प्रेम है और न अच्छी समझ ही है, उनको यह कथा सुनने में फीकी लगेगी। जिनका श्रीहरि (विष्णु) और श्रीहर (शिव) के चरणों में प्रीति है और जिनकी बुद्धि कुतर्क करने वाली नही है (जो हरि-हर में भेद या ऊँच-नीच की कल्पना नहीं करते), उन्हें श्रीरघुनाथ जी की यह कथा मीठी लगेगी। अग्नि पुराण में स्वयं भगवान ने कहा है कि हम दोनों में निश्चय ही कोई भेद नही है। भेद देखने वाले नरक गामी होते हैं।
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