एस.पी.सक्सेना/बोकारो। देश में स्वतंत्रता संग्राम (Freedom Struggle) के दौरान वीर भूमि पर ऐसे कई शुर वीर पैदा हुए, जिन्होंने इतिहास में अपना नाम स्वर्णाक्षरों में दर्ज कराया।
एक छोटी सी आवाज को नारा बनने में देर नहीं लगती। बस दम उस आवाज को उठाने वाले में होना चाहिए। इसका जीता जागता मिसाल थे झारखंड के वीर सपूत धरती आवा भगवान बिरसा मुंडा।
बिरसा मुंडा ने बिहार और झारखंड (Jharkhand) के विकास और भारत के स्वतंत्रता आंदोलन में अहम रोल निभाया। अपने कार्यो और आंदोलन की वजह से बिहार और झारखंड में लोग बिरसा मुंडा को भगवान की तरह पूजते हैं।
उन्होंने मुण्डा विद्रोह, पारम्परिक भू-व्यवस्था के जमींदारी व्यवस्था में बदलने के कारण किया। बिरसा मुण्डा ने अपनी सुधारवादी प्रक्रिया के तहत सामाजिक जीवन में एक आदर्श प्रस्तुत किया। ब्रिटिश सत्ता के अस्तित्व को अस्वीकारते हुए अपने अनुयायियों को सरकार को लगान न देने का आदेश दिया था।
बिरसा मुंडा का जन्म 1875 में रांची के लिहतु में हुआ था। सुगना मुंडा और करमी हातू के पुत्र बिरसा मुंडा के मन में ब्रिटिश सरकार के खिलाफ बचपन से ही विद्रोह था। चाईबासा में बिताए चार सालों ने बिरसा मुंडा के जीवन पर गहरा असर डाला।
वर्ष 1895 तक बिरसा मुंडा एक सफल नेता के रुप में उभरने लगे, जो लोगों में जागरुकता फैलाना चाहते थे। 1894 में आए अकाल के दौरान बिरसा मुंडा ने अपने मुंडा समुदाय और अन्य लोगों के लिए अंग्रेजों से लगान माफी की मांग के लिए आंदोलन किया।
1895 में उन्हें गिरफ़्तार कर लिया गया और हजारीबाग केन्द्रीय कारागार में दो साल के कारावास की सजा दी गयी, लेकिन बिरसा और उनके शिष्यों ने क्षेत्र की अकाल पीड़ित जनता की सहायता करने की ठान रखी थी। यही कारण रहा कि अपने जीवन काल में ही उन्हें एक महापुरुष का दर्जा मिला।
उन्हें उस इलाके के लोग “धरती बाबा” के नाम से पुकारा और पूजा करते थे। 1897 से 1900 के बीच मुंडाओं और अंग्रेज सिपाहियों के बीच युद्ध होता रहा और बिरसा और उसके चाहने वाले लोगों ने अंग्रेजों की नाक में दम कर दिया।
अगस्त 1897 में बिरसा और उसके चार सौ सिपाहियों ने तीर कमानों से लैस होकर खूंटी थाने पर धावा बोल दिया। 1898 में तांगा नदी के किनारे मुंडाओं की भिड़ंत अंग्रेज सेनाओं से हुई। जिसमें पहले तो अंग्रेजी सेना हार गयी।
बाद में इसके बदले उस इलाके के बहुत से आदिवासी नेताओं की गिरफ़्तारियां हुई। बिरसा ने अपनी अंतिम सांसें 9 जून, 1900 को रांची कारागर में ली। आज भी बिहार, उड़ीसा, झारखंड, छत्तीसगढ और पश्चिम बंगाल के आदिवासी इलाकों में बिरसा भगवान की तरह पूजे जाते हैं।
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