गंगोत्री प्रसाद सिंह/हाजीपुर (वैशाली)। वैशाली जिला की एक विरांगना की कहानी जिसने देश की आजादी में अपने पति के साथ कन्धा से कंधा मिलाकर चली। जिसने भारत माता की वलिवेदी पर अपना सुहाग न्यौछावर कर दी। जिसने 24 वर्ष की उम्र में वैधव्य को प्रप्त कर 70 वर्ष वैधव्य जीवन जिया।
उस अमर शहीद बैकुण्ठ शुक्ल की पत्नी राधिका देवी की कहानी जिसके त्याग और बलिदान को आज देश और समाज ने भुला दिया है।
सारण जिले के परसा थाना के हद में महमदपुर गांव निवासी बाबू चक्रधारी सिंह की पुत्री के रूप में बबुनी राधिका का जन्म वर्ष 1910 के पूस माह के अमावस्या को हुआ था। राधिका ने सातवी तक की शिक्षा परसा से पास की।
इनके पिता ने मात्र 17 वर्ष की उम्र में लालगंज के जलालपुर गांव के बाबु रामबिहारी शुक्ल के पुत्र बैकुण्ठ शुक्ल के साथ 11 मई 1927 को शादी कर दी, जो उन दिनों बगल के गांव मथुरापुर के प्राइमरी स्कूल में शिक्षक थे।
स्वतंत्रता सेनानी बैकुण्ठ शुक्ल की जिस समय शादी हुईं, उस समय देश की आजादी के लिये आंदोलन शुरु हो गया था। बैकुण्ठ शुक्ल के एक चाचा योगेंद्र शुक्ल का देश के बड़े क्रांतिकारी चन्द्रशेखर आजाद, भगत सिंह, रासबिहारी बोष के साथ था। बैकुण्ठ शुक्ल के पिता नही चाहते थे कि उनका बेटा भी क्रांतिकारी बने।
जिस वजह से उन्होंने बैकुण्ठ के आठवीं पास करते ही बगल के गांव मथुरापुर प्राईमरी स्कूल में शिक्षक के पद पर उनकी नौकरी लगवा दी। उसी गांव के राजनारायण शुक्ल के घर पर बैकुंठ शुक्ल के रहने की व्यवस्था कर दी गयी। बैकुंठ शुक्ल स्कूल के बाद राजनारायण शुक्ल के घर के बच्चों को पढ़ाते थे।
वैशाली जिला मुख्यालय हाजीपुर स्थित गांधी आश्रम तब उत्तर बिहार के स्वतन्त्रता सेनानियो का प्रमुख केंद्र था। क्रांतिकारियों के लिए यह सबसे सुरक्षित स्थान माना जाता था। बाबु किशोरी प्रसन्न सिंह नरम दल और गरम दल के मुखिया थे। आश्रम की जबावदेही पंडित जयनन्दन झा और अक्षयबट राय पर थी।
सन 1928 के आते आते जिले के क्रांतिकारी बसावन सिंह और योगेंद्र शुक्ल एचएसआरए से जुड़ने के बाद उनका कार्य क्षेत्र बनारस, दिल्ली और लाहौर हो गया, जिससे हाजीपुर में आंदोलन कमजोर पर गया। किशोरी प्रसन्न सिंह अपनी पत्नी सुनीति के साथ जिले में घूम घूम कर भारत सेवा दल के लिये स्वयंसेवक खोज रहे थे।
इसी क्रम में किशोरी बाबू मथुरापुर के राजनारायण शुक्ल के घर गए, जहाँ उनकी मुलाकात बैकुण्ठ शुक्ल से हुई। किशोरी बाबू की बात से प्रभावित होकर बैकुण्ठ शुक्ल स्वयंसेवक बनने के लिये तैयार हो गए, लेकिन नई नई शादी को लेकर चिंतित थे।
कहा जाता है कि तब बैकुंठ शुक्ल ने कहा कि उनकी पत्नी तैयार हो जाय तो वे भी दोनों देश सेवा में लग जाएंगे। बैकुण्ठ शुक्ल की दुविधा को खत्म करने के लिये किशोरी प्रसन्न सिंह ने बैकुण्ठ शुक्ल की पत्नी को तैयार करने के लिये सुनीति देवी को लगाया। सुनीति देवी बैकुण्ठ शुक्ल की पत्नी से दो बार मुलाक़ात की और राधिका देवी पति के साथ देश सेवा के लिये तैयार हो गई।
वर्ष 1929 के जून माह में बैकुण्ठ शुक्ल अपनी पत्नी राधिका के साथ अपनी शिक्षक की नौकरी छोड़कर हाजीपुर गांधी आश्रम आ गये। आश्रम में सुनीति देवी के अलावे शारदा देवी, कृष्णा देवी सहित अन्य महिलायें भी रहती थी, जो आश्रम का काम देखना और चरखे पर सूत काटने का काम करती थी।
किशोरी बाबू ने बैकुण्ठ शुक्ल को चरखा समिति का प्रचार करने का जिम्मा दिया। बैकुण्ठ शुक्ल और राधिका देवी हाजीपुर से महनार, दलसिंह सराय, मजफ्फरपुर, सारण के मलखाचक के केंद्रों पर चरखा समिति का प्रचार करने जाते आते रहे, जिससे इन दोनों का इस क्षेत्र के सभी कांगेसी नेताओं और सेवा दल के कार्यकर्तायों के साथ गहरा सम्बन्ध स्थापित हो गया।
किशोरी बाबू कि पत्नी सुनीति देवी महिला स्वयंसेवको की नेत्री थी, जिनसे राधिका को काफी लगाव हो गया। सुनीति देवी एक अच्छी घुड़सवार भी थी। राधिका देवी को सुनीति देवी ने साईकल चलाना सिखा दिया।राधिका देवी सुनीति के साथ दूर दूर क्षेत्र में भारत सेवा दल के कार्यक्रम में जाने आने लगी।
सुनीति देवी पटना की सेवा दल की महिला सदस्य प्रभावती देवी से भी जुड़ी हुई थी।सुनीति देवी क्रांतिकारी साथियों के बीच संवाद से लेकर हथियार पहुंचाने का भी कार्य करती थी। स्वंय भी हथियार चलाना जानती थी। दुबली पतली सुनीति देवी पुरूष वेश भी धारण कर पुलिस को चकमा दे दिया करती थी।
गांधी आश्रम में बटुकेश्वर दत्त, चन्द्रशेखर आजाद औऱ भगत सिंह का योगेंद्र शुक्ल की वजह से आना जाना होता था। सन 1930 में सविनय अवज्ञा आंदोलन शुरू होने के पूर्व आंदोलन की तैयारी को लेकर कांग्रेस के बड़ै नेता श्रीकृष्ण सिंह औऱ बाबू रामदयालु सिंह गांधी आश्रम आये।
श्रीकृष्ण सिंह ने आश्रम की महिलाओं का कार्य देखकर बहुत प्रभावित हुये और सुनीति देवी और राधिका देवी के कार्य की प्रशंसा की। वर्ष 1930 में जब सविनय अवज्ञा आन्दोलन शुरू हुया उस दिन जिले भर के सभी स्वयंसेवक गाँधी आश्रम में एकत्रित हुए। स्वयं सेवको की इतनी भीड़ थी कि पुलिस ने इनसे टकराने की हिम्मत नही की।
बाद में अंग्रेजी घुड़सवार पुलिस आश्रम में आई और आंदोलकारियों को पकड़ कर ले जाने लगी। जिसका आश्रम की महिला जत्था ने विरोध किया। जिनपर पुलिसवालों ने डंडे से प्रहार किया। पुलिस की डंडे से राधिका देवी का बायां हाथ टूट गया। बैकुण्ठ शुक्ल सहित 72 स्वयंसेवको को पुलिस ने पकड़ कर बाँकीपुर कैम्प जेल भेज दिया। जहाँ से 6 माह बाद गांधी इरविन समझौते के बाद आंदोलनकारियों को छोड़ा गया।
जून माह 1930 को बाबू योगेंद्र शुक्ल और बसावन सिंह के काकोरी षड्यंत्र केस औऱ तिरहुत षड्यंत्र केस में गिरफ्तार हो जाने के बाद बैकुण्ठ शुक्ल ने जिले में हिन्दुतान सोसलिस्ट रिपब्लिक आर्मी की कमान संभाल ली। सन 1931 में गाँधीजी के आह्वान पर बैकुण्ठ शुक्ल और राधिका देवी ने मजफ्फरपुर के तिलक मैदान में तिरंगा झंडा फहराया, जिसमे बैकुण्ठ शुक्ल पुलिस द्वारा गिरफ्तार कर लिए गये। राधिका देवी भागकर हाजीपुर आ गई।
लाहौर षड्यंत्र केश में भगत सिंह औऱ उनके साथियों को गद्दार फणीन्द्र नाथ घोष की गवाही से 23 मार्च 1931 को फांसी होने के बाद देश के क्रांतिकारियों में मायूसी छा गई। क्रांतिकारी गद्दार फणीन्द्र को किसी भी सूरत में अंजाम मौत पहुंचाना चाहते थे। उस समय फणीन्द्र घोष अंग्रेजो से इनाम पाकर बेतिया में पुलिस के संरक्षण में रह रहा था।
पंजाब के क्रांतिकारी साथियों का हाजीपुर के क्रांतिकारियों के मुखिया किशोरी प्रसन्न सिंह के नाम क्रांतिकारी के नाम पर कलंक फणीन्द्र की हत्या का पैगाम आया, जिसको अंजाम देने के लिये सभि क्रांतिकारी तैयार थे। सुनीति देवी इस कार्य के लिये जिद कर बैठी कि फणीन्द्र की हत्या को वह जाएगी। जब अक्षबट राय के समझाने पर भी सुनीति देवी नही मानी तब लॉटरी निकली गई जो बैकुण्ठ शुक्ल के नाम निकला।
बैकुण्ठ शुक्ल और चंद्रमा सिंह बेतिया के मीना बाजार स्थित फणीन्द्र घोष के दुकान पर पहुंचे और बैकुण्ठ शुक्ल ने फणीन्द्र के कलेजे में अपनी कटार घुसेड़ दी। भारत माता का जय घोष करते हुए निकलने के क्रम में उन्हें पकडने आये एक व्यक्ति को कटार लगी औऱ वह भी जमीन पर गिर पड़ा। फणीन्द्र की हत्या के बाद अंग्रेजी हुकूमत बौखला गई। जगह जगह क्रांतिकारियों की धर पकड़ होने लगी, लेकिन बैकुण्ठ शुक्ल और चंद्रमा सिंह फरार हो गए।
फणीन्द्र घोष की हत्या के बाद बैकुण्ठ शुक्ल को विश्वास हो गया कि अंग्रेजी सरकार उनको फांसी दे देगी। उन्होंने राधिका देवी से सहमति लेकर फरारी के दौरान ही गांव की जमीन में अपना हिस्सा अपने छोटे भाई हरिद्वार शुक्ल को दान लिख दिया। जिसके लिये उनके चाचा सूरज शुक्ल ने समझाया कि तुम्हारे बाद राधिका का क्या होगा।
तब बैकुण्ठ शुक्ल ने कहा कि बड़े भाई का फर्ज निभा रहा हूं। जब देश आजाद हो जायेगा तो राधिका के लिये उसके बहुत से देवर खड़े हो जाएंगे। बैकुण्ठ शुक्ल ने अपने चाचा से राधिका को किसी स्कूल में नौकरी लगवाने का आग्रह किया।
बैकुण्ठ शुक्ल 6 जुलाई 1933 को गिरफ्तार हुए और चन्द्रमा सिंह के साथ उनको मोतिहारी जेल में रखा गया। मजफ्फरपुर सेसन कोर्ट में उन दोनों पर मुकदमा चला। अपने दोस्त चन्द्रमा को बचाने के लिये बैकुण्ठ शुक्ल ने हत्या का सारा दोष अपने ऊपर ले लिया। सेसन कोर्ट ने 22 फरवरी 1934 को बैकुण्ठ शुक्ल को फांसी की सजा सुनाई।
सुनवाई के दौरान ही बैकुण्ठ शुक्ल ने अपनी पत्नी से हाईकोर्ट में अपील नही करने का बचन ले लिया था। बैकुण्ठ शुक्ल को फांसी की सजा होने के बाद राधिका को अपील के लिए दबाव दिया तो राधिका ने कहा कि वह अपना सुहाग हंसते हंसते भारत माता की बेदी पर न्योछावर करती हैं। उनके पति की यही इच्छा है।
जब 14 मई 1934 को गया जेल में बैकुण्ठ शुक्ल को फांसी होने वाली थी, उसके एक दिन पहले ही आश्रम के लोगो के साथ वे गया जेल पहुंची, लेकिन जेल अधिकारियों ने बैकुण्ठ शुक्ल से उनको अंतिम मुलाकात नही होने दी। 14 अगस्त को फांसी के बाद बैकुण्ठ शुक्ल का पार्थिव शरीर भी उनको नही दी गई।
शाम में जेल के कुछ सिपाहियों ने उन्हें बताया कि सरकार के हुक्म पर उनलोगों ने अपने कंधे पर लाद कर बैकुण्ठ शुक्ल की लाश को फल्गू नदी किनारे अंतिम संस्कार कर दिया है। तब भी राधिका बिना रोये फल्गू नदी में स्नान कर अपने पति को तर्पण अर्पित कर हाजीपुर लौट आई।
बैकुण्ठ शुक्ल के शहादत के बाद राधिका देवी के मायकेवाले अपने पास ले गए, लेकिन कुछ माह बाद वे पुनः गांधी आश्रम लौट आई। सन 1936 में सुनीति देवी के यक्ष्मा से काल कवलित होने पर राधिका देवी अकेली पर गई। जब योगेंद्र शुक्ल 1937 में कालापानी की सजा से लौटे तब राधिका देवी को मनाकर उन्हें जलालपुर ले आये। बैकुण्ठ शुक्ल के चाचा सूरज शुक्ल शिक्षक ने राधिका देवी को ख़ंजाहाचक प्राइमरी स्कूल में शिक्षक के रूप में उन्हें रखवा दिया।
राधिका देवी साइकिल से स्कूल आया जाया करती थी। जब देश आजाद हुया तब बिहार के मुख्यमंत्री डॉ श्रीकृष्ण सिंह ने राधिका देवी के नाम पहलेजाघाट से बसई तक बस का रोड परमिट दिलवा दिया। जिस परमिट पर चांदपुरा के राघो बाबू का नीरजा बस चलता था।
राघो बाबू आजीवन 1000 रुपया महीना राधिका देवी को देते आए। सन 1969 में राधिका देवी शिक्षक की नौकरी से सेवानिवृत हो गयी। सन 1984 में उन्हें स्वतन्त्रता सेनानी का पेंशन मिलना शुरू हुआ। राधिका देवी अपने देवर हरिद्वार शुक्ल के चारो लड़के और एक लड़की के साथ रहती आई और उनकी जरूरतों पर रुपया खर्च कर बड़ा होने का फर्ज निभाया।
राधिका देवी मजफ्फरपुर में वैकुण्ठ शुक्ल का शहिद स्थल निर्माण और गया केन्दीय जेल का नाम शहीद बैकुण्ठ शुक्ल के नाम पर किये जाने के लिये नेताओं के पास दौड़ती रही। इसके लिये उन्होंने मुजफ्फरपुर में कई बार सड़को पर धरना भी दिया, लेकिन अपने मन मे पति की याद में मुजफ्फरपुर में स्मारक बनने का सपना लिये 95 वर्ष की उम्र में 24 जनवरी 2004 को स्वर्ग सिधार गई।
राधिका जी का मुजफ्फरपुर में शहीद स्थल बनाये जाने का सपना 2017 में पूरा हुआ, जब बैरिया गोलम्बर पर शहीद बैकुण्ठ शुक्ल की आदमकद प्रतिमा लगाई गई। स्रोत:-किशोरी प्रसन्न सिंह की आत्म कथा जीने की राह राधिका जी के ग्रामीण अजय शुक्ला और मुझे भी राधिका जी से मिलने और बात करने का अवसर मिला।
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