विनोद कुमार सिंह/बोकारो (झारखंड)। रंगों का त्योहार होली में दुश्मन को गले लगाया जाता है। खुशियाँ बांटी जाती है। आस-पड़ोस के लोग एक दूसरे का स्वागत अभिनन्दन करते हैं। आपस के गिले शिकवे को भुलाकर गुंजिया-पकवान का भरपूर आनंद लेते हैं।
कहीं-कहीं लोग होली के अवसर पर झाल, मंजिरा, ढोलक की थाप पर गावं के नुक्कड़, चौराहे पर सामूहिक होली के गीत गाते देखे जाते हैं। जमाने के साथ लगभग सभी पर्व के तौर तरीकों में कुछ-न-कुछ परिवर्तन आया है। इससे होली भी अछूता नहीं रहा। पहले होली के अवसर पर भांग और ठंढाई लोगों को आनंदतिरेक कर देता था। अब तो ठंढाई की जगह सुरा ने लेकर होली को पुरी तरह बदरंग करने लगा है।
काश कि मुझे होली का वह दौर दीखता जिसमें गावं की गलियों में युवा-युवतियों की टोली एक दूसरे को रंग लगाते और होली के मजे लेते थे। ऐसा नहीं कि तब होली में हुड़दंग नहीं होता था, लेकिन वह सामाजिक परंपरा के दायरे में रहकर। अब तो युवा होली में एक-दूसरे के जान के प्यासे नजर आने लगे हैं। लौट आ ऐ होली अपनी पुरानी रंगत में।
[लेखक पुराने पत्रकार भी हैं।]
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