पाकिस्ताननामा
अंधेर नगरी, बनाम पाकिस्तान को अंतर्राष्ट्रीय अदालत के फैसले ने करारा झटका दिया। यह जरूरी भी था चूंकि जिस प्रकार वहां की फौजी अदालत दहशतगर्दी और दूसरे ऐसे ही मामलों में बिना किसी सुनवाई दुहाई के जबर्दस्ती, यातना देकर मासूम और बेकसूर लोगों को, बिना किसी सबूत, बिना सफाई का मौका दिए और अदालती कानून से कम सिद्धांतों के अंतर्गत, सजाए मौत देकर अपनी निर्दयता का सबूत देते हैं। मासूम, निर्दोष लोगों को धोखे से पकड़कर ऐसा वहशियाना कुकर्म, प्रतीक है घोर सामंतवादी मानसिकता का, जिससे किसी पर भी अत्याचार करने से मन मस्तिष्क को एक घिनौना सुख मिलता है।
सजा नहीं दी, किसी का शिकार किया। जो जाल में फंस गया, फंस गया। हमारे कुलभूषण जाधव के साथ भी ऐसा ही व्यवहार किया गया। ईरान से अपना बिजनेस करने वाले, कुलभूषण को ईरान से अपहरण करके फौज के हवाले करके, बलोचिस्तान में दहशतगर्दी के आरोप में फौजी अदालत में मुकदमा चलाकर सीधे सजाए मौत सुना दिया गया। मुकदमे की कार्रवाई के दौरान उन्हें किसी तरह की कानूनी मदद का मौका नहीं दिया गया और सीधे सजा सुना दिया। यह कैसी अदालत थी, जहां आरोपी को या उसके किसी भी वकील सहयोगी इत्यादि को सफाई देने का अधिकार नहीं दिया गया। यह तो सरासर किसी जंगल राज का जंगली और वहशी फैसला था।
खुशी की बात है कि अंतर्राष्ट्रीय अदालत को ऐसे मामले की पूरी सूझबूझ है। उसके इंसाफ पसंद, मंजे हुए कानून दां और मानवीय मूल्यों के संरक्षक जजों को आईने की तरह दुनिया के सभी देशों की नापाक हरकतों का पता होता है। पाकिस्तानी फौजी अदालत द्वारा कुलभूषण जाधव जी को फांसी की सजा देने के विरोध में भारतीय पक्ष की जिरह सुनकर 11 जजों ने एकमत होकर उनकी मौत की सजा पर रोक लगाकर इंसाफ का सिर ऊंचा किया।
उनके फैसले के अनुसार कुलभूषण जी को अदालत का अंतिम फैसला सुनाने तक फांसी नहीं देने का फैसला सुनाया। अदालत ने यह भी फैसला दिया कि वियना संधि के अनुसार भारत को कुलभूषण मामले में दूतावास से संपर्क करने की अनुमति देनी चाहिए।
यकीनन अंतर्राष्ट्रीय अदालत के फैसले से पाकिस्तानी शासन की सुबकी हुई और पाकिस्तानी विपक्ष ने समूचे मामले को ठीक से पेश नहीं करने के लिए नवाज शरीफ की निंदा की। होना तो यह चाहिए था कि विपक्ष ही नहीं, पाकिस्तान के सभी प्रगतिशील और उदारवादी शवितयां फौजी अदालत की इस नाइंसाफी और कानून के हिसाब से बिलकुल गलत और तर्कहीन फैसले की निंदा करते। इस बात को भी समझने की जरूरत है कि एक सिविल सोसायटी, लोकतांत्रिक सिस्टम में एक सधी सधाई संवैधानिक प्रशासन में फौजी अदालत की क्या जरूरत है।
इतना ही नहीं, उसे मौत की सजा देने का अधिकार कैसे दिया जा सकता है। एक ही देश में दो अलग-अलग तरह की अदालतों का क्या मतलब है? ऐसा क्या है कि वहां की आम अदालतों के बदले छोटे बड़े मुकदमों का भी फैसला, अलग से बनाए गए फौजी अदालत में हो? यह तो लोकतंत्र का बड़ा मजाक ही कहा जाएगा? एक लोकतांत्रिक देश किस तरह फौजी अदालत को बर्दाश्त कर सकता है?
इससे यह सच्चाई भी सामने आती है कि आज भी एक लोकतांत्रिक व्यवस्था और संवैधानिक प्रशासन के बावजूद, पाकिस्तान पर पर्दे के पीछे ही नहीं, बिलकुल आमने- सामने फौज का ही शासन है। कुलभूषण जी के मामले को ही लें। उन पर सिविल अदालत में क्यों नहीं मुकदमा चलाया गया? फौजी अदालत को इतना बड़ा अधिकार कैसे मिल गया कि वह मौत की सजा दे। वह भी किसी आम अदालती सिस्टम की तरह वयों नहीं है? लोकतांत्रिक व्यवस्था की अदालतों में क्या, कार्रवाई नहीं होती है। क्या पाकिस्तान के आम अदालत, हाईकोर्ट, सुप्रीम कोर्ट केवल खामोश अदालतें हैं। क्या अदालतें गूंगी है? यह कैसा तमाशा और कैसा सिस्टम है?
पाकिस्तान में सुप्रीम कोर्ट भी है और हाईकोर्ट भी। कुल मिलाकर सुप्रीम कोर्ट के अलावे अलग अलग पांच हाईकोर्ट हैं। इसके अतिरिक्त हर छोटे बड़े जिले और तालुकों में छोटी अदालतें हैं। लगभग हमारे यहां की तरह। कानून भी बिलकुल ब्रिटिश काल का। पुलिसिया सिस्टम भी हमारे यहां की तरह का ही है। सरकारी अधिकारियों की नियुक्ति वगैरा भी हमारे आईएएस की तरह होती है।
अलबत्ता कुछ नया है, तो वह है शरीअत अदालत। लेकिन आम तौर पर वह सक्रिय नहीं है। ज्यादातर लोग आम सिविल अदालतों में ही जाते हैं। फौजी अदालतों को, दहशतगर्दों के लिए बनाया गया था। लेकिन दहशतगर्द खुलेआम घूम रहे हैं और मासूम लोग पकड़े जा रहे हैं। अंधेर नगरी में ऐसा ही होता है।
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