एस.पी.सक्सेना/ बोकारो। दुनियां में इंसान ही है जो ठान ले तो असंभव को भी संभव बना देता है। आश्चर्य इस बात की है कि बहुतेरे आजतक आदमी तो बन गया लेकिन इंसान नहीं बन पाया है। इन्हीं तथ्यों पर आधारित है झारखंड के राजनीतिक विश्लेषक प्रखर व्यंग्यकार विकास सिंह का यह लेख:-
” पंछी नदियां पवन के झोंके कोई सरहद ना इन्हें रोके.. सरहद इंसानो के लिये है , सोंचो हमने क्या पाया इंसा होके। “
जावेद अख्तर की फिल्म ” रिफयूजी ” के लिये लिखा यह गीत हमेशा मेरे मन में एक सवाल खड़ा करता रहता है। डार्विंन के अनुसार हम बन्दर से आदमी तो बन गये परंतु पता नहीं ” इंसान ” कब बनेंगे? फिर मुझे साहिर लुधियानवी का लिखा फिल्म “धूल का फूल” का वह गीत याद आता है ” कुदरत ने हमे बक्शी थी बस एक हीं धरती हमने कहीं भारत कहीं ईरान बनाया।”
सचमुच प्रकृति ने मानव जाति के लिये पूरी कायनात , पूरी दुनिया उपहार में दिया ..लेकिन हम अपनी बेवकूफी, नादानी और संकीर्ण मानसिकता के कारण अलग अलग सीमा बनाकर कैद हो गये हैँ। मेरा मानना है कि सारी दुनिया के लोगो का सारी दुनिया पर अधिकार होना चाहिये। हम कौन होते हैं धरती पर लकीरें खींचने वाले? क्या हम आजतक सभ्य नहीं हुये ..?
क्या हम ऐसे समय की कल्पना नहीं कर सकते …जब हम चाहें लाहौर के अनारकली बाजार में तफरीह करें। चीन के थ्येन आन मन स्कवायर पर वायलिंन बजायें। पेरिस के एफिल टावर पर चढ़कर चांद को निहारे या फिर न्यूय़ार्क में स्टैचू ऑफ लिबर्टी के साथ सेल्फी लें। सारे धर्मो के ठिकेदार हमे धर्म का मतलब पीड़ित मानवता की सेवा बतावें और हम इथियोपिया, सोमालिया, ऊगांडा, नाईज़िरिया के कुपोषित बच्चो और भूखे इंसानो को खाना खिलावें। राजनीति सेवा का माध्यम हो ब्यापार का नहीं। एक विश्व एक नागरिकता हो।
आखिर हम कब तक आदमी के भेष में अपने अन्दर एक वहशी जानवर को ढ़ोते रहेंगे? इस जाहीलियत के अंन्धेरी सुरंग से हम कब निकलेंगे? मै उम्मिद करता हूँ वो सुबह कभी तो आयेगी …शायद ज़रूर आयेगी!
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