कुंडपुर नगर की यात्रा करने से प्राप्त होता है सौगुना फल
अवध किशोर शर्मा/सारण (बिहार)। सारण के निकटवर्ती वैशाली जिले के हद में भगवान महावीरकालीन विदेह और महावीर की जन्मभूमि कुंडपुर नगर की महिमा अविमुक्त क्षेत्र काशी के समानांतर थी। उक्त प्रदेश के रहिवासी श्रमण मुनि अपने शुद्ध चरित्र से देह रहित (मुक्त) हो जाते थे।
जैन कल्पसूत्र के हवाले से विद्या वाचस्पति डॉ श्रीरंजन सूरिदेव लिखते हैं कि वह प्रदेश विदेह क्षेत्र के नाम से विख्यात था। तब वैशाली और वाणिज्य ग्राम के बीच गंडकी नदी बहती थी। यहीं पर नाव से पार करने के बाद नाविकों को जब उन्होंने शुल्क या खेवा नहीं चुकाया तो उन्हें रोक लिया गया था। जब इस बात की जानकारी तत्कालीन गण राजा शंख के भगिना चित्त को लगी तो उन्हें नाविकों से मुक्त कराया था। भगवान महावीर ने वाणिज्य ग्राम के बहिर्भाग़ में तपोविहार भी किया था।
वाणिज्य ग्राम में आनन्द नामक तपोनिरत श्रावक ने उनका दर्शन कर केवल्य ज्ञान प्राप्त किया था। जिन प्रभु सूरी रचित विविध तीर्थ कल्प के शत्रुंजय तीर्थ कल्प में कुंडपुर या कुंडग्राम को तीर्थोपासना को स्वीकार करते हुए कहा गया है कि वहां की यात्रा करने से सौगुना फल प्राप्त होता है।
राजकुमार सिद्धार्थ के पांच महावीरकालीन विदेह और महावीर की जन्मभूमि कुंडपुर नगर की महिमा नाम बचपन में प्रसिद्ध हो गए थे। इनमे वर्धमान नाम माता पिता ने दिया। शेष चार नाम वीर, महावीर, स्वयंबुद्ध और सन्मति उनके गुणों के कारण प्रसिद्ध हुए।
जैन तीर्थंकर महावीर ने मोटा अनाज कोदों से किया था पारणा
विश्व के प्राचीनतम गणराज्य वैशाली के सपूत चौबीसवें तीर्थंकर भगवान महावीर ने वत्स देश के कौशांबी नगरी में ज्ञान प्राप्ति के दौरान अपने लंबे उपवास के बाद मोटा अनाज कोदो से पारणा कर अपना उपवास तोड़ा था। भगवान महावीर के जन्म के समय 599 ई. पूर्व काल में मोटा अनाज की देश में बड़ी खपत थी। आम जन अपने स्वास्थ्य के प्रति सचेत थे।
महावीर स्वामी यानी राजकुमार सिद्धार्थ को माता -पिता ने वर्धमान नाम दिया था। इसके बाद वीर, महावीर, स्वयंबुद्ध और सन्मति नाम उनके गुणों के कारण देश और दुनिया में प्रसिद्ध हुआ। कुमारावस्था काल के 30 वर्ष बीतने के बाद उन्होंने वैराग्य प्राप्त किया। दीक्षोपरांत 12 वर्ष 7 मास 21 दिन पर्यन्त तक अखंड मौन अवस्था में रहे। दो दिवस की तपश्चचर्या के उपरांत मार्गशीर्ष कृष्ण द्वादशी के दिन कूल ग्राम के नगर के नगरपति राजा कूल ने अपने राजप्रासाद में उन्हें गौरस द्वारा निर्मित क्षीर (परमान्न) का आहार समर्पित किया था। सर्वप्रथम महावीर स्वामी ने छह दिन का उपवास किया था। वत्स देश की इसी कौशांबी नगरी में तीन दिन की उपवासी राजकुमारी चंदना से 5 माह 25 दिन से उपवास व्रत धारण किए महावीर स्वामी ने कोदों का पारणा ग्रहण किया था। इन्हें 1008श्री महावीर स्वामी भी कहा जाता है।
प्राचीनतम गणराज्य लिच्छवि गणतंत्र के प्रमुख राजा चेटक की ज्येष्ठ पुत्री त्रिशला/ प्रियकारिणी इनकी माता थीं। 599 ईसा पूर्व काल संवत्सर में आषाढ़ शुक्ल षष्ठी शुक्रवार को उनका जन्म हुआ हुआ था। उस समय चंद्रमा उत्तरोषाढा नक्षत्र में था। वे इक्ष्वाकु वंश के काश्यप गोत्रिय ज्ञातृ कुल के लिच्छवी जाति के थे। इनका जन्म स्थान वैशाली गणतंत्र के क्षत्रिय कुंड ग्राम था।
पुष्पदंतकृत महापुराण में भविष्यवाणी की गई थी कि जम्बूद्वीप के भरत क्षेत्र में स्थित कुंडपुर के राजा सिद्धार्थ और रानी प्रियकारिणी के चौबीसवें तीर्थंकर जिनेन्द्र महावीर का जन्म होगा। जिनसेन कृत हरिवंश पुराण में विदेह प्रदेश में स्थित कुंडपुर में उनका जन्म स्थान बताया गया है।कल्प सूत्र में कहा गया है कि ज्ञातृ, ज्ञातृ पुत्र, ज्ञातृ कुलोत्पन्न, वैदेह, विदेहदत्त, विदेह जात्य, विदेह सुकुमार, श्रमण भगवान महावीर 30 वर्ष विदेह देश के ही गृह में निवास करके प्रब्रजित हुए। जहां उनका जन्म हुआ था उस स्थल पर उनके जन्म के 2555 वर्ष व्यतीत होने पर विक्रम संवत् 2012 वर्ष पूर्व ही में भारत के तत्कालीन राष्ट्रपति डॉ राजेंद्र प्रसाद ने वहां आकर उस स्मारक का उदघाटन किया था। यहीं पर महावीर स्मारक और प्राकृत जैन शोध संस्थान भी है।
अहिंसा ही परम धर्म है
भगवान महावीर ने मगध के पावापुरी में अपना अंतिम उपदेश अहिंसा ही परम धर्म है जन साधारण और बौद्ध भिक्षुओं को दिया था। इस उपदेशों को जैन श्रमणों ने देश और दुनिया में फैलाने का काम किया। श्रमणों के प्रयास से विश्व भर में अहिंसा का प्रचार -प्रसार हुआ। ईरान में जरथुस्त्र ने अहिंसा का उपदेश दिया। चीन में ताऊ ने अहिंसा पर जोर दिया।
फिलस्तीन में एस्सेन नागरिकों ने अहिंसा को जीवन में उतारा। वे कट्टर अहिंसावादी थे। यूनान में पाइथोगोरस ने अहिंसा की धारा बहाई। इस तरह भगवान महावीर की अहिंसा का यह संदेश ईरान से आगे फिलिस्तीन, मिस्र और यूनान तक पहुंचा था। बौद्ध ग्रन्थ दीर्घ निकाय में भी भगवान महावीर को लोकमान्य तत्ववेत्ता लिखा है। बुद्ध के शिष्य उन्हें निर्ग्रंथ (जैनों) के आप्तदेव तीर्थंकर ज्ञातृपुत्र महावीर कहकर ही सम्मानित करते थे। इनकी प्रसिद्धि सुनकर ईरान के राजकुमार अरदराक (अर्द्रक) भारत आए और उनका उपदेश सुनकर शिष्य बन गए। ईरान में संभवतः उन्होंने ही अहिंसा धर्म का प्रचार किया। यहां के कलंदर संप्रदाय के सूफी कवि जीव रक्षा के लिए कहते हैं कि आहिस्ता से चलो, बल्कि चलों ही नहीं तो और अच्छा है, क्योंकि तेरे पैर के नीचे हजारों जानदार प्राणी हैं।
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