हिंदी पत्रकारिता दिवस पर विशेष

कहां से चली और कहां पहुंच गई हिंदी पत्रकारिता

30 मई को हिंदी पत्रकारिता (Hindi Patrakarita) पूरे 194 साल की हो गई। अपने विकास के इस दौर में हिंदी पत्रकारिता कलम से निकल कर कंप्यूटर से होते हुए इलेक्ट्रॉनिक मीडिया और सोशल मीडिया (मोबाइल, व्हाट्सअप, ट्विटर, यू ट्यूब चैनल आदि) तक जा पहुंची है। इस बीच हिंदी पत्रकारिता ने न जाने कितने पड़ाव पार किए। 1826 में जब इसकी शुरुआत हुई, तब हमारा देश गुलामी की जंजीरों से जकड़ा हुआ था। अंग्रेजी हुकूमत के साये में शुरू हुई हिंदी पत्रकारिता ने 1857 की आजादी की पहली लड़ाई के साथ देश में आजादी की लड़ाई के न जाने कितने अच्छे और बुरे वक्त देखे, उसे महसूस किया और उस पर अपनी कलम चलाई।

हिंदी पत्रकारिता ने भारत की आजादी की वह सुबह भी देखी और 1948 में भारत विभाजन के बाद हुए कत्लेआम का ऩजारा भी। आजादी से पहले पत्रकारिता एक मिशन हुआ करती थी, उसके सामने एक लक्ष्य था। देश को अंग्रेजों की गुलामी से आजाद कराना। परंतु देश के आजाद होते ही पत्रकारिता मिशन से दूर हो गई। अब उसके सामने न मिशन रहा और न पत्रकारिता का मूल तत्व। प्रेस की स्वतंत्रता वाली पत्रकारिता का मूल तत्व धीरे – धीरे पूंजीवाद और बाजारवाद के अधिकार क्षेत्र में चला गया। तकनीकी नजरिए से देखा जाए तो हिंदी पत्रकारिता और अधिक सशक्त हुई है। मगर वह अपने उद्देश्य से भटक अवश्य गई है। पूंजीवाद और बाजारवाद अब उस पर हावी है। जन जागृति का उसका मूल अभिप्राय भी अब धीरे – धीरे लुप्त होने की कगार पर है।

आधुनिक भारत के जनक राजा राममोहन राय (Raja Ram Mohan Roy) को भारतीय भाषाई पत्रकारिता का प्रवर्तक कहा जाता है। समाचार पत्रों की स्थापना, संपादन और प्रकाशन के क्षेत्र में उनका योगदान अतुलनीय है। उन्होंने खबरों और विचारों को पत्रकारिता के माध्यम से लोगों तक पहुंचाया।

समाचार पत्रों के प्रकाशन का उनका मूल अभिप्राय ही था लोगों में जन जागृति लाना, उनके ज्ञान और अनुभव में अभिवृद्धि करना, सरकार को जनता की स्थिति और जनता को सरकार के कामकाज व नियम – कानून की जानकारी देना तथा सामाजिक प्रगति में उनकी सहायता करना। उन्होंने हिंदी, बांग्ला, अंग्रेजी और फारसी भाषाओं की पत्रकारिता के लिए रचनात्मक कार्य कर पत्रकारिता के क्षेत्र में अहम भूमिका निभायी।

भाषाई अखबारों के जनक राजा राममोहन राय ने 1821 में संवाद कौमुदी नामक साप्ताहिक पत्र शुरू किया, जिसे भारतीय भाषा में भारत का सबसे पहला समाचार पत्र होने का गौरव प्राप्त है। इसके अलावा उन्होंने कई और समाचार पत्र शुरू किए, जिनमें बंगाल गजट, मिरातुल, बंगाल हेराल्ड प्रमुख हैं।

भारत में हिंदी पत्रकारिता की शुरुआत बंगाल से हुई। 30 मई, 1826 को कलकत्ता से पंडित जुगल किशोर शुक्ल के संपादन में निकलने वाले उदंत्त मार्तंड को हिंदी का पहला समाचार पत्र कहा जाता है। हालांकि अंग्रेजी हुकूमत के कड़े तेवर के चलते 04 दिसंबर,1827 को इस अखबार को बंद कर दिया गया। जुगल किशोर शुक्ल ने ही 1850 में सामदंड और मार्तंड नामक अखबार निकाला।

1845 में बनारस से बनारस अखबार, 1848 में इंदौर से मालवा अखबार, 1852 में आगरा से बुद्धिप्रकाश व 1853 में ग्वालियर गजट, 1854 में समाचार सुधा वर्षण, भारतेंदु हरिश्चंद्र ने 1868 में कवि वचन सुधा, 1871 में मुंशी सदानंद सतवाल ने अल्मोड़ा अखबार, 1872 में केशवराय भट्ट ने विहार व बंधु, 1878 में छोटूलाल मित्र तथा दुर्गाप्रसाद मित्र ने भारत मित्र, 1880 में दुर्गाप्रसाद मित्र ने उचित वक्ता नामक समाचार पत्र प्रकाशित किए। मगर ये सभी अखबार बहुत ही अल्पकाल में अंग्रेजी हुकूमत के दबाव के कारण बंद हो गए। हिंदी का पहला दैनिक समाचार पत्र “समाचार सुधा वर्षण” 1854 में बंगाल से ही निकला।

इसके संपादक थे श्यामसुंदर सेन। लाला सीताराम का “दैनिक भारतोदय” 1885 में शुरू हुआ। यह अखबार भी एक साल चलकर बंद हो गया। इसी बीच काला कांकर के राजा रामपाल सिंह ने “दैनिक हिन्दोस्तान” नामक समाचार पत्र शुरू किया। पंडित मदन मोहन मालवीय और बाबू बाल मुकुंद गुप्त भी इस समाचार पत्र के संपादक रहे। यह सबसे बड़ी बात थी कि भारतीय पत्रकारिता के साथ – साथ हिंदी पत्रकारिता के आरंभिक विकास का केंद्र बंगाल और विशेष रूप से कलकत्ता रहा।

सन 1900 ईस्वी में नागरी प्रचारिणी सभा ने “सरस्वती” का प्रकाशन प्रारंभ किया। 1903 में आचार्य महावीर प्रसाद द्विवेदी ने इसका संपादन कार्य शुरू कर हिंदी भाषा को संस्कार, साहित्यिक संपदा, जन जागरण, स्वदेश प्रेम और राष्ट्रीय भाव प्रदान किए। अंग्रेजी शासन की दमन नीति और अत्याचारों के विरोध के रूप में मोहनदास करमचंद गांधी ने 1921 में “हिंदी नवजीवन” और 1933 में “हरिजन सेवक” नामक अखबार निकाला। इन दोनों ही समाचार पत्रों के संपादक थे हरिभाऊ उपाध्याय। लगभग इसी समय “तरुण भारत” का प्रकाशन भी शुरू हुआ। पंडित मदन मोहन मालवीय का “अभ्युदय” और खेमकाजी कृष्णदास का “श्री वेंकटेश्वर समाचार” पहले दैनिक और बाद में साप्ताहिक हो गए। 1925 में “कलकत्ता समाचार” दिल्ली आया और “हिंदू संसार” के नाम से छपने लगा।

इसी समय गणेश शंकर विद्यार्थी ने कानपुर से “प्रताप” का प्रकाशन प्रारंभ कर दिया। लगभग इसी दौर में कई साप्ताहिक पत्र शुरू हुए, जिनमें स्वराज्य, प्रकाश, जीवन, प्रजा पुकार, आवाज, सुबहे वतन, किसान प्रमुख हैं। 1929 में “दैनिक सत्य”, 1930 में “लोकमत”, 1934 में “अंकुश”, 1941 में “सारथी” और 1943 में “लोकसेवा” अखबारों का प्रकाशन प्रारंभ हुआ। इसी तरह इंदौर और उज्जैन आदि जगहों से कई समाचार पत्र शुरू हुए।

छत्तीसगढ़ अंचल से “विकास” (बिलासपुर), “उत्थान”, “अग्रदूत”, “सावधान” व “महाकौशल” (रायपुर), “मधुकर” व “लोकवार्ता” (टीकमगढ़), “लोकेंद्र” व “प्रतिभा” (दतियां), “बांधव” व “भास्कर” (रीवा), “बिन्ध्यभूमि” (पन्ना) और “मानसमणि” (सतना) से जन जागृति अभियान के लिए निकले। हिंदी अखबारों ने देश को अंग्रेजी हुकूमत से मुक्त कराने में अपनी अहम भूमिका का एक महत्वपूर्ण इतिहास कायम किया है। स्वतंत्रता का सूर्य उगा और भारतीय पत्रकारिता को एक नया आयाम मिला।

आजादी से पहले हिंदी में अनगिनत समाचार पत्र शुरू हुए। बहुतों ने आजादी का अपना मिशन पूरा होते ही अपने आप को समेट लिया, तो कुछ उसके बाद भी निकलते रहे। मगर आगे चलकर उन्होंने भी दम तोड़ दिया। इस दौर तक आते – आते हिंदी पत्रकारिता से दैनिक अखबारों, साप्ताहिकों तथा मासिक पत्रों की भूमिका खुद ब खुद स्पष्ट होती गई। इनके अंतर भी समझ में आने लगे। इसके साथ ही राजनीतिक और साहित्यिक पत्रकारिता का विभाजन भी स्पष्ट हो गया। आजादी के पहले पत्रकारिता का उद्देश्य राष्ट्रभक्ति, स्वाधीनता की भावना तथा देश को विदेशी चंगुल से छुड़ाने की थी, वही पत्रकारिता आजादी के बाद बदल गई।

पत्रकारों और संपादकों को लगा अब तो देश आजाद हो गया है। अब उनकी भूमिका सामाजिक और राजनीतिक वस्तुस्थिति को जनता के सामने रखने से अधिक जरूरी हो गया सरकार द्वारा प्रगति के लिए किए गए प्रयासों का सरकारी विवरण लोगों तक पहुंचाना। आज जितने और जिस प्रकार के समाचार पत्र प्रकाशित हो रहे हैं उन पर सरकार और पूंजीपतियों का वर्चस्व उन्हें उनके लक्ष्य से कोसों दूर ले गया है।

एक तरह से कहा जाए तो पत्रकारिता व्यावसायिक हो गई है और उसका सरकारीकरण हो चुका है। अपने मूल उद्देश्यों से भटक गई पत्रकारिता के कारण असंख्य अखबारों ने जनता का विश्वास खो दिया है। पत्रकारिता की विश्वसनीयता खत्म हो गई है, क्योंकि पूंजीपति, राजनेता और माफिया अखबार निकालने लगे हैं।

आजादी के बाद की पत्रकारिता की बात करें तो आजादी के कुछ महीने पहले लाभचंद छजलानी ने इंदौर से “नई दुनिया” का प्रकाशन शुरू किया। 1948 में “नव प्रभात”, शंभुनाथ सक्सेना ने 1964 में “निरंजन”, भोपाल से “नई राह”, 1950 में इंदौर से “जागरण”, 1951 में “नव भारत” और लगभग इसी समय “दैनिक भास्कर” भी शुरू हुआ। 1953 में रीवा से “दैनिक जागरण”, 1966 में “दैनिक स्वदेश”, 1968 में “दैनिक अवंतिका”, 1973 में इंदौर से “विश्व भ्रमण” साथ ही मध्य प्रदेश से “मालवा समाचार”, “प्रभात विवरण” तथा “सूचक” नामक समाचार पत्र शुरू हुए। 1974 में शुरू हुआ “देशबंधु”, “एमपी क्रॉनिकल” और “हितवाद”।

इसके साथ ही “हिंदी मिलाप”, आज, नवभारत टाइम्स, पंजाब केसरी, राजस्थान पत्रिका, राष्ट्रदूत, नव ज्योति, अमर उजाला, नव जीवन, सन्मार्ग, विश्वमित्र, हिंदुस्तान, वीर अर्जुन, दिनमान, जनसत्ता, आज का आनंद, हमारा महानगर, दबंग दुनिया, यशोभूमि आदि अनेकों अखबारों का प्रकाशन आरंभ हुआ। इसी बीच इलेक्ट्रॉनिक मीडिया ने हिंदी पत्रकारिता में एक नया आयाम जोड़ दिया। आज पत्रकारिता हाईटेक हो गई है।

अंतरिक्ष के अनुसंधान में लगे उपग्रहों की सार्थकता के कारण तीव्र गति ने दुनिया को बेहद करीब ला दिया है। अब सेकेंडों में देश दुनिया के समाचार उपलब्ध हो रहे हैं। इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के विभिन्न समाचार चैनलों में प्रतिस्पर्धा के कारण सबसे पहले खबर देने की होड़ ने पत्रकारिता की दिशा ही बदल दी है।

हालांकि देश के जागरण में, आजादी की लड़ाई में, राष्ट्रीय आंदोलनों की सफलता में और जनमत को अनुकूल बनाने में हिंदी समाचार पत्रों ने सबसे अधिक परिश्रम किया है, फिर भी अंग्रेजी के समाचार पत्रों का महत्व आज हिंदी समाचार पत्रों की तुलना में बहुत अधिक है। वैसे देखा जाए तो आज भी हिंदी समाचार पत्रों की जन साधारण में धाक है, मगर हिंदी पत्रकारों की दशा सोचनीय है।

194 वर्ष बाद भी हिंदी पत्रकारों की दशा में कोई खास परिवर्तन नहीं आया है। संपादक की जगह अब प्रबंधक समाचार पत्र निकालने लगे हैं। समाचार पत्रों की नीति राष्ट्र हित के स्थान पर व्यवसाय हित अधिक हो गई है। पत्रकारिता के मिशन, मूल्य और मुद्दे खोते जा रहे हैं, बाजारवाद के पैर पसारते जा रहे हैं। यह इसलिए है कि हिंदी के समाचार पत्रों के संचालक अधिकतर पूंजीपति हैं और जो पूंजीपति नहीं हैं, वे भी पूंजीपति की मनोवृत्ति और प्रवृत्ति के शिकार हो गए हैं। यही कारण है कि वे संपादकों का वास्तविक महत्व नहीं समझते।

उनका यथोचित सम्मान नहीं करते। उनके अधिकारों की रक्षा पर ध्यान नहीं देते। कहने को तो देश को आजादी मिल गई है परंतु पत्रकारिता और पूंजीवाद तथा बाजारबाद का बेमेल गठबंधन आज भी इस आजाद आबोहवा में सिर्फ हिंदी की ही नहीं, बल्कि पूंजीवादी मनोवृत्ति सभी भारतीय भाषाओं की पत्रकारिता के गले की फांस बनी हुई है। पूंजीपतियों के दबाव में संपादकों और पत्रकारों के पास आजादी नहीं है।

लोकतंत्र का चौथा स्तंभ कही जाने वाली पत्रकारिता और उससे जुड़े लोग मालिकों के दबाव में इस कदर हैं कि वे अपने कर्तव्य का निर्वहन चाहते हुए भी सही तरीके से पूरी ईमानदारी और निष्ठा से नहीं कर पा रहे हैं। इसका अर्थ यह नहीं कि हिंदी पत्रकारिता समाप्त हो जाएगी। पत्रकारिता कभी खत्म नहीं हो सकती। उसका वजूद कल भी था, आज भी है और हमेशा रहेगा।

राकेश दुबे 
(वरिष्ठ पत्रकार, स्तंभकार एवं मीडिया विशेषज्ञ)

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