सिद्धांत और गरिमा जहालत से मुक्ति का मार्ग है- विकास सिंह

एस.पी.सक्सेना/ बोकारो। सिद्धांतों को अपनाकर उसका अक्षरशः पालन करना गौरव की बात होती है। यह इतना आसान भी नहीं है।बिरले ही अपने सिद्धांतों पर चलकर गरिमामय जीवन जी पाते हैं।परंतु यह सत्य है कि सिद्धांत को अपनाकर ही इन्सान गरिमामय जीवन जीते हैं और जहालत से मुक्ति पाते हैं। पूर्ववर्ती सरकारों और वर्तमान व्यवस्था का तुलनात्मक अध्ययन करता यह लेख झारखंड के प्रखर राजनीतिक विश्लेषक विकास सिंह द्वारा इसकी प्रासंगिकता को स्पष्ट करता है:-
जो सिर्फ जीतने का मकसद लेकर जीते हैं वे मरे हुये लोग होते हैं। जीवित वो कहलाते हैं जो जिंदगी में कोई उद्देश्य या सिद्धांत के साथ जीतें हैं।

ऐसे ही एक वाकया याद आ गया। वर्ष 1979 में मोरारजी भाई (Morarji Bhai) की सरकार के खिलाफ अविश्वास प्रस्ताव पेश हो चुका था। चन्द्रशेखर जी जनता पार्टी के अध्यक्ष थे और सरकार बचाने के लिये परेशान थे। वे कुछ सांसदो से बात किये और उनसे समर्थन का आश्वासन ले लिये, मगर उनकी कुछ शर्तोंं के साथ। उन्हीं शर्तों पर चर्चा के लिये रात 9:30 बजे मोरारजी भाई के प्रधानमंत्री निवास पहूँचे। मोरारजी भाई ठहरे पूरे सिद्धांतवादी। वे ठीक 9:00 बजे शयनकक्ष में चले जाते थे।

अतः चन्द्रशेखर से मिलने से मना कर दिये और सुबह आने को कह दिया। झल्लाते हुये चन्द्रशेखर वापस लौटे। बड़बड़ाते हुये कि इस प्रधानमंत्री की सरकार जा रही है और इसे कोई चिंता हीं नहीं है।
खैर! सुबह सवेरे फिर चन्द्रशेखर जी पहुंचे मोरारजी भाई के आवास और बताये कि कुछ सासंद सरकार को समर्थन देने को तैयार हैं।

बदले में उनकी माँग सिर्फ इतनी है कि उनके क्षेत्र में कुछ विकास योजनाओं को लागू करने का आश्वासन मिल जाये। कहीं से यह मांग गलत और अनैतिक नहीं थी, लेकिन गाँधीवादी विचारधारा का सख्ती से पालन करने वाले मोरारजी भाई को यह गँवारा नहीं लगा। वे बड़ी शाँत मुद्रा में धीरे धीरे चन्द्रशेखर जी को बोले..” देखो चन्द्रशेखर !

मैं देश का प्रधानमंत्री हूँ। मेरे लिये देश के सभी लोकसभा क्षेत्र बराबर है। मैं कुर्सी बचाने के लिये स्वार्थ वश कोई गलत समझौता नहीं कर सकता। मैं जिस कुर्सी पर बैठा हूँ उसकि गरिमा और मर्यादा है। अगर मैं उसका पालन नहीं कर सकता तो इस कुर्सी पर बैठने का मुझे कोई अधिकार नहीं। मैं इस कुर्सी पर कितने दिन बैठता हूँ यह भी बड़ी बात नहीं। बड़ी बात यह है कि इस कुर्सी पर बैठने को इतिहास किस नजर से आकलन करेगा! मेरे लिये यह बड़ी बात है।”

आज के सन्दर्भ में जब इन बातों पर गौर करता हूँ तो लगता है कि हम कितने नीच और गलीज़ लोगों के साथ रह रहे हैं। जीना आज मौत से भी बदतर बन गया है। क्या सच में हमारा देश बुद्ध और महाबीर, कबीर और नानक का रहा है? जहाँ राजमुकुट पैरों तले रौंदे जाते रहे हैं। जहाँ ज्ञान पिपासा महलों से निकल जंगलों में खाक छानती थी। जहाँ सबसे पहले लोकतंत्र का विचार और व्यवस्था पैदा हुई। जहाँ शोणित की धारों ने सम्राट अशोक को हिँसा से विमुख कर युद्ध पिपासु हिन्श्र पशु से मानव बना दिया। जहां सिन्धु की सभ्यता विश्वविख्यात और आकर्षण का केन्द्र रही हो। हमें विचार करना होगा अपने अतीत पर अपने गौरव पर और तब इस जहालत से मुक्ति का मार्ग ढूँढ़ना होगा।

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