कोरोना से जंग में ट्रांसपेरेंसी की जगह सीक्रेसी को हथियार बना रही बिहार सरकार

संतोष कुमार झा/ मुजफ्फरपुर (बिहार)। जब आप यह आलेख पढ़ रहे होंगे तब बिहार (Bihar) में कोरोना संक्रमित मरीजों की संख्या 80 हजार को पार कर गयी होगी। गत 9 अगस्त के आंकड़े के मुताबिक राज्य में कोरोना संक्रमित मरीजों की संख्या 79,325 पहुंच गयी थी। इनमें से 27,650 मरीज अभी भी संक्रमित हैं और इलाजरत हैं।

अगर आप यह पता लगाने की कोशिश करें कि इनमें से कितने मरीज माइल्ड सिंप्सटम की वजह से होम आइसोलेशन में हैं और कितने अस्पतालों में भर्ती हैं तो बिना किसी मजबूत अंदरूनी संपर्क के आप यह जानकारी हासिल नहीं कर सकते। यह सिर्फ बिहार के आम लोगों की बात नहीं है। मेनस्ट्रीम मीडिया के पत्रकारों को भी इस बारे में कुछ नहीं पता।

आप यह भी पता नहीं लगा सकते कि जो मरीज अस्पतालों में इलाजरत हैं, उनमें से कितने सरकारी अस्पताल में भर्ती हैं और कितने प्राइवेट अस्पतालों में। इनमें से कितने आइसीयू में हैं, कितने वार्ड में, कितने मरीज वेंटीलेटर पर हैं, कितने मरीजों को आक्सीजन की जरूरत पड़ रही है। यह कहा जा रहा है कि अब बिहार में टेस्टिंग की दर रोज 75 हजार के आसपास पहुंच गयी है। अगर आप यह जानने की कोशिश करेंगे कि इनमें से कितनी जांच रैपिड एंटीजन के जरिये हो रही है। जिस टेस्ट में आमूमन रिजल्ट स्पष्ट नहीं हो पाता और कितनी जांच आरटी-पीसीआर वाले तरीके से हो रही है, जिसे कोरोना जांच का अब तक का सबसे सटीक तरीका माना जाता है।
राज्य के 92 फीसदी मरीज होम आइसोलेशन में हैं।

कभी किसी स्रोत से एक आंकड़ा मिल गया था कि राज्य के 92 फीसदी मरीज होम आइसोलेशन में हैं। अभी भी सारे पत्रकार इसी आंकड़े का इस्तेमाल कर रहे हैं। उसी तरह मुजफ्फरपुर जिले में एक बार यह खबर छपी कि 95 फीसदी टेस्ट रैपिड एंटीजन के जरिये ही हो रहे हैं, तो हमारे पास पूरे राज्य की स्थिति समझने के लिए यही आंकड़ा है। जाहिर है कि अगर आंकड़ा यही है तो स्थिति बहुत नाजुक है। सरकार आज भी कोरोना मरीजों को अस्पताल में या कोविड केयर सेंटर में जगह दिलाने में विफल है।

बिहार जैसी घनी और गरीब आबादी वाले राज्य के लिए होम आइसोलेशन बहुत अच्छा विकल्प नहीं है। टेस्टिंग इसी तरह होती रही तो इसका अर्थ यही है कि हमें कोरोना जांच के सही आंकड़े नहीं मिल रहे। राज्य सरकार का पूरा जोर उस एटींजन टेस्ट पर है, जिसके नतीजे संदिग्ध होते हैं। इसके बावजूद यहां के पत्रकार इन मसलों पर कुछ लिखने की स्थिति में नहीं हैं। राज्य सरकार के स्वास्थ्य विभाग की तरह से अब कुछ रूटीन जानकारियों के अलावा कोई आंकड़ा जारी नहीं किया जा रहा है। न सार्वजनिक रूप से, न पत्रकारों के लिए। हर शाम विभाग के वाट्सएप ग्रुप पर राज्य के पत्रकारों को जो कोरोना संक्रमण से संबंधित विस्तृत आंकड़े जारी किये जाते थे, वे भी एक अगस्त से बंद कर दिये गये हैं। मार्च महीने से ही बिहार में कोरोना संक्रमण की रिपोर्टिंग करने वाले पत्रकारों के लिए यह बिल्कुल नया अनुभव है।

मई महीने के आखिरी सप्ताह तक जब तक राज्य में स्वास्थ्य विभाग के प्रधान सचिव संजय कुमार थे, उस वक्त तक हर रोज इस वाट्सएप ग्रुप पर विस्तृत आंकड़े जारी किये जाते थे। उन आंकड़ों में मरीजों की संख्या के साथ-साथ, यह भी जानकारी होती थी कि किन अस्पतालों में और किन कोविड केयर सेंटर में कितने मरीज एडमिट हैं। किस अस्पताल में कितने बेड खाली हैं। इसके साथ-साथ राज्य में उपलब्ध पीपीई किट, सैनेटाइजर, वेंटीलेटर, दवा आदि के बारे में भी विस्तृत जानकारी होती थी।

संजय कुमार खुद टि्वटर पर एक्टिव थे और दिन भर राज्य के कोरोना से संबंधित आंकड़े पोस्ट करते थे। बीच-बीच में वे कई तरह के विश्लेषण भी डालते थे, ताकि राज्य में कोरोना का ट्रेंड समझ आ सके। वे जो जानकारी पोस्ट करते थे, उसमें नकारात्मक जानकारियां भी होती थीं। विभाग की छवि की परवाह किये बगैर वे सूचनाओं को लगातार साझा किया करते थे। 22 मई के बाद अचानक उनका तबादला हो गया और उदय सिंह कुमावत विभाग के नये प्रधान सचिव बने। वे खुद टि्वटर पर एक्टिव नहीं थे।

उन्होंने पत्रकारों की नियमित ब्रीफिंग को जारी रखा, उसमें कोई बदलाव नहीं किया। यह जरूर हुआ कि संजय कुमार से टि्वटर पर सवाल पूछे जाते थे और वे उनका कई बार जवाब देते थे। उदय सिंह के आने के बाद न सिर्फ आम लोगों के लिए बल्कि पत्रकारों के लिए भी किसी खबर से संबंधित सूचना को हासिल करना मुश्किल हो गया। उन्हें हटाकर जब 27 जुलाई को प्रत्यय अमृत को विभाग का प्रधान सचिव बनाया गया। अचानक स्वास्थ्य विभाग की कोरोना से संबंधित सभी सूचनाएं जारी होनी बंद हो गयीं। पिछले 10 दिनों से दिन में एक बार केवल संख्या बतायी जाती है।

सारी खबरें उसी आधार पर बनती हैं। कई जिलों में तो जिला प्रशासन रात के 11 से 11.30 बजे के बीच कोरोना जांच के आंकड़े जारी करता है, ताकि अगले दिन के अखबार में वे आंकड़े न आ सकें।
इन उदाहरणों से साफ है कि पिछले दस-बारह दिनों से राज्य में कोरोना जांच की रफ्तार तो बढ़ी है, मगर इससे संबंधित आंकड़ों और सूचनाओं की जबर्दस्त सेंसरशिप चल रही है। पूरी कोशिश है कि ये आंकड़े मीडिया में न आ पायें। राज्य में अब तक 18 से अधिक वरीय चिकित्सकों की मृत्यु हो गयी है। यह जानना लगभग असंभव है कि कुल कितने डॉक्टर और स्वास्थ्य कर्मी संक्रमित हैं।

ज्यादातर चिकित्सक रेनकोट पहनकर या सिर्फ मास्क में काम करते दिखते हैं। राज्य में अभी कुल कितने पीपीई किट उपलब्ध हैं, इसके बारे में कोई कुछ बताने के लिए तैयार नहीं है। इन दिनों ग्रामीण क्षेत्रों में भी खूब मरीज मिल रहे हैं। ग्रामीणों के लिए भी यह जान पाना मुश्किल है कि उनके पड़ोस में कोई कोरोना मरीज मिला है। मरीज मिलने के कई दिनों बाद प्रशासन आकर उसके घर को लॉक करता है। कंटेनमेंट जोन बनाता है, तब तक तमाम लोग अंधेरे में रहते है।

राज्य सरकार का स्वास्थ्य विभाग आखिर पारदर्शिता से सूचना की सेंसरशिप की दिशा में क्यों लगातार बढ़ रहा है। क्यों आवश्यक सूचनाएं दबाई जा रही हैं? क्यों मीडियाकर्मियों के सवालों का उन्हें जवाब नहीं मिल पा रहा, समझ पाना मुश्किल है। कोरोना संक्रमण से मुकाबले में टेस्टिंग, ट्रेसिंग, ट्रीटमेंट के साथ ट्रांसपेरेंसी को भी उतना ही महत्व दिया जाता है। साउथ कोरिया जैसे मुल्क ने इसी ट्रांसपेरेंसी के बल पर कोरोना के मामले में शुरुआती सफलता हासिल की। केरल, ओड़िशा के बाद अब असम की सरकार ने भी टेस्टिंग, ट्रेसिंग औऱ ट्रीटमेंट के साथ ट्रांसपेरेंसी को कोरोना के खिलाफ अभियान में महत्वपूर्ण उपकरण माना है।

बिहार सरकार सूचना को छुपाने औऱ दबाने के चालीस साल पुराने दौर में वापस जाती दिख रही है। वह दौर जब हर जानकारी गोपनीयता के नाम पर छुपायी जा रही थी। ऐसे में कई लोगों की आशंका यह भी है कि टेस्ट के जो आंकड़े दिये जा रहे हैं, वह भी संदिग्ध हैं और कोरोना से हो रही मृत्यु के आंकड़ों को भी छिपाने की कोशिश की जा रही है। पिछले दिनों बिहार में कोरोना की वजह से अस्पतालों की बदहाल स्थिति पर राष्ट्रीय टीवी चैनलों में खूब खबरें आयी थीं और सरकार की काफी बदनामी हुई थी। तभी से संभवतः सरकार आंकड़ा, सूचना छिपाओ रणनीति पर काम कर रही है।

संभवतः सरकार को यह भरोसा है कि वह अपनी पसंद के आंकड़े जारी करके लोगों को यह बता सकती है कि राज्य में कोरोना की स्थिति अब काफी नियंत्रण में है। ताकि समय से चुनाव करवाये जा सकें, जो अक्टूबर, नवंबर में प्रस्तावित हैं। राज्य सरकार संभवतः यह भूल गयी है कि सूचना को छिपाने से खबरें नहीं छिपती। अगर वाकई स्थिति नियंत्रण में नहीं हुई तो किसी रोज ऐसा विस्फोट हो सकता है, जो सरकार के छवि चमकाने के सभी प्रयासों पर भारी पड़ सकता है।

पिछले दिनों नालंदा मेडिकल कॉलेज अस्पताल और डीएमसीएच में शवों के पड़े रहने के वायरल वीडियो ने भी राज्य की स्वास्थ्य व्यवस्था की कमी उजागर की थी। बिहार सरकार के साथ ऐसा हमेशा होता है। वह सूचनाओं के सेंसरशिप के जरिये अपनी छवि बेहतर रखने की लगातार कोशिश करती है। बदहाल स्थिति होने के कारण कभी कोई ऐसा मामला सामने आ ही जाता है, जो उनकी महीनों की पीआर प्रैक्टिस पर पानी फेर देता है। इसलिए बेहतर यही है कि सरकार सूचनाओं को छिपाने और खबरों की सेंसरशिप करने के बदले अपना ध्यान स्थितियां बेहतर करने पर लगाये। सूचनाएं सार्वजनिक होंगी तो लोगों में सजगता भी बढ़ेगी। कर्मचारियों-अधिकारियों पर काम करने का दवाब भी होगा।

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