असीमित वनोत्पाद के बाद भी सारंडा में कुपोषित बच्चों की संख्या में वृद्धि

सारंडा में कटहल का कोई मोल नहीं होना गंभीर विषय-राजू सांडिल

सिद्धार्थ पांडेय/जमशेदपुर (झारखंड)। सात सौ पहाड़ियों की घाटी के नाम से एशिया प्रसिद्ध झारखंड और ओड़िशा में स्थित सारंडा जंगल लगभग 850 वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैला हुआ है। सारंडा का वन झारखंड का कुल क्षेत्रफल का 29.61 प्रतिशत है।

ऐसे सघन वन क्षेत्र में सैकड़ो प्रकार की वन औषधि, फल, कंद-मूल, वनोत्पाद समेत पौष्टिक आहार मौजूद है। इसके बाद भी यहां रहने वाले ग्रामीणों की आर्थिक उन्नति तथा जीवन स्तर में सुधार नहीं होने के अलावे यहां कुपोषित बच्चों की संख्या में निरंतर वृद्धि होना गंभीर विषय है । राज्य सरकार एवं वन विभाग ने सारंडा के ग्रामीणों को वन आधारित रोजगार से जोड़ने का कभी प्रयास हीं नहीं किया। जिससे वे विभिन्न प्रकार के रोजगार से जुड़कर स्वावलम्बी या आत्म निर्भर बन सकें।

उल्लेखनीय है कि सारंडा में प्रतिवर्ष करोड़ों रूपये के वनोत्पाद उचित बाजार नहीं मिलने अथवा रोजगार मुलक प्रशिक्षण या जानकारी के अभाव में नष्ट हो जा रहे हैं। उदाहरण के तौर पर आम, कटहल, इमली, महुआ, चिरौंजी, बेर, तेंदू, साल पत्ता, लाह, धूना, महुआ बीज, साल बीज, शहद व अन्य अनेकों ऐसे वनोत्पाद है, जिसका सरकारी स्तर पर वन विभाग सारंडा के विभिन्न क्षेत्रों में क्रय-विक्रय केन्द्र खोल दे तो न सिर्फ सरकार को राजस्व प्राप्त होगा, बल्कि सारंडा के ग्रामीणों को भी रोजगार मिलना प्रारम्भ हो जायेगा।

इसके अलावे ग्रामीणों को आम, कटहल, निंबू आदि का अचार बनाने, पके आम का अमावट बनाने आदि वन अधारित उत्पादों से जुड़ी प्रशिक्षण देकर सारंडा के तमाम गाँवों को कुटीर उद्योग से जोड़ा जा सकता है। इन प्रोड्क्टों की सरकारी ब्रांडिंग कर बेचने के लिये बाजार उपलब्ध करा दिया जाये, तो सारंडा के हजारों रहिवासियों को प्रतिवर्ष करोड़ों रूपये का लाभ उपलब्ध कराया जा सकता है। इससे वनों की कटाई पर भी अंकुश लगेगा।

सबसे खराब स्थिति सारंडा में बहुतायत तादाद में पाया जाने वाला कटहल के साथ है। पूरे भारत में कटहल प्रति किलों 50 से 150 रूपये तक बिकता है। लेकिन सारंडा में इसका कोई मोल नहीं है। करोड़ों रुपये का कटहल ग्रामीणों के पेड़ पर हीं सड़ जाते अथवा पककर जमीन पर गिर जाते हैं।

यह कटहल ग्रामीणों के लिये परेशानी का कारण व जानलेवा भी साबित होते हैं। देखा गया है कि कटहल खाने के चक्कर में हाथियों का समूह गांवों में आ धमकता है, जिससे हाथियों व ग्रामीणों में टकराव बढ़ती है। हाथी ग्रामीणों के घरों को भी तोड़ डालते एवं मौत के घाट उतार देते हैं। हाथी का प्यारा भोजन में से एक कटहल भी है।

उक्त तथ्यों को बताते हुए सारंडा वन क्षेत्र में स्थित गांगदा गाँव के मुखिया राजू सांडिल ने 27 मार्च को बताया कि सारंडा की चिरौंजी को स्थानीय व बाहरी व्यापारी ग्रामीणों से एक डब्बा चिरौंजी के बदले 13-15 डब्बा घटिया स्तर का चावल देकर खरीद उन्हें सात सौ से हजार रूपये किलो तक बेचते हैं। यहीं हाल महुआ, इमली, लाह, धूना, श्याली, साल व तेंदू पता आदि के साथ भी हो रहा है।

जिसका उचित मूल्य सारंडा के रहिवासियों को नहीं मिल रहा है।उन्होंने कहा कि सरकार अथवा वन विभाग सारंडा के थलकोबाद, दिघा, मनोहरपुर, छोटानागरा, रोवाम आदि स्थानों पर इन वनोत्पादों को खरीदने के लिये सरकारी दुकान खोल दे एवं उत्पादों की कीमत निर्धारित कर दे, तो सारंडा के रहिवासियो की आर्थिक स्थिति में व्यापक सुधार आयेगी और उन्हें रोजगार मिल जायेगा।

मुखिया सांडिल ने कहा कि यह हमारे व सरकार के लिये दुर्भाग्य की बात है, कि जिस झाड़-जंगल के नाम पर झारखंड राज्य बना उसी जंगल के उत्पादों को ब्रांडिंग कर खरीद-बिक्री के लिये सरकार के पास कोई योजना नहीं है, जिससे पूरे झारखंड में करोड़ों रूपये का वनोत्पाद जंगल में ही नष्ट हो जा रहे हैं।

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